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अध्यात्म-दर्शन
पूर्वगाथा में शान्तिपद के लिए शुद्ध देव के प्रतिक्षा आवश्यक बनलाई, अब पवित्र गुरु के प्रति श्रद्धा की जावश्यकता का नपेन करणे गुण का लक्षण बताते है । वास्तव में शान्ति का ग्बर और शान्ति के लिए मार्गदर्शन हेतु 'गुरु' की महती आवश्यकता है, परन्तु भूमण्डल में जान अनेया नामधारी गुर घूम रहे है । ये शिष्य को ननमार्ग विधाना तो दूर रहा, उन्ट मार्ग पर चहा देते हैं , जिस पर चल कर वह अपने जीवन का नारा कर लेता है, जानि में वदले अशान्ति के गर्न में गिर जाता है, कर्म-मुक्ति को बदले पामबन्धन करके नाना योनियो और गतियो मे भटकता रहता है । मी कारण बहुत-से लोग तो यहांतक कहने लगे-"ऐसे कुगुरओ से तो गुरन बनाना अच्छा है ।" परन्तु सभी गुरु ऐसे नहीं होते और सभी लोग गुरु के विना रह नहीं गफाले । सदगुर ने वचित रहना एक अलभ्य लाभ को खोना है । इसी दृष्टि ने शान्तिप्रदायक या शान्तिस्वरूपदर्शक सच्चे गुरु की पहिचान के लिए श्रीआनन्दघनजी गतके लक्षण बताते हुए कहते है-'आगमधर गुर० · ·
सद्गुर के लक्षण आगमधर गुरु-सद्गुरु की पहिवान के लिए सर्वप्रयम यह देखना चाहिए कि वह नागमो व सिद्धान्त का ज्ञाता हो, ज्ञाता ही नहीं, भागमो के गूढ रहन्यो, पूर्वापरविरुद्ध वातो, उत्सर्ग-अपवाद के मो एव द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के अनुसार युगानुकूल सयोजन करने का अनुभवी हो । क्योकि जिसको शास्त्रो का रहस्यपूर्वक ज्ञान होगा, वह कमी मी परिस्थिति के समय आत्मसमाधि मे स्थिर रह सकेगा, दूसरो को भी शास्त्रज्ञान दे कर समाधिन्य कर सकेगा। पाप एव प्रमाद से बचने के लिए आगन दीपक के समान है। दशवकालिक सूत्र में कहा है कि 'शान्त्र (सूत्र) ज्ञान से चित्र एकाग्र होता है, उसकी आत्मा स्वय स्वधर्म-स्वभाव में स्थिर हो कर दूसरो को सूत्रज्ञान से स्वधर्म मे स्थिर करती है सूत्रो (श्रुतो) का अध्ययन करके साधक श्रुत
१. देखिये दशवकालिक सूत्र (अ ८ उ ४) का वह पाठ
'नाणमेगग्गचित्तो य ठिओ य ठावई पर । सुयाणि य अहिज्जित्ता रओ सुयममाहिए ।।