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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
कोई है या नहीं ? इस पर भी मूलमूत्र मे स्पष्टीकरण दिया है कि समस्त पदार्थ जिनदेव ने कहे हैं उन्हे नि सकोच वैसे ही रूप में माने। 'पुरुषविश्वासे वचनविश्वास.' इस न्याय के अनुसार उन पदार्थों या भावो के मूल वक्ता आप्तपुरुप पर विश्वास हो, तो उनके द्वारा कथित या प्ररूपित वचनो पर भी श्रद्धा या विश्वास जम जाता है । इस प्रकार देव (वीतराग) तत्त्व के सम्बन्ध मे उसके मन में जरा भी शका-कुशका नहीं रहती। यह शान्तिस्वरूप की पहली शर्त है। ऐसी श्रद्धा रखने वाला ही वास्तविक धर्म और शान्ति, को प्राप्त कर सकता है। बहुत-सी बाते अतीन्द्रिय तथा अमूर्त होने के कारण अदृश्य होती है, अनिर्वचनीय भी होती हैं, जैसे लोक-अलोक भी जो दूर हैं, वे नहीं दिखाई देते , देवलोक या नागलोक दूर है, वे दृष्टिगोचर नहीं होते। मगर ये सब उसी प्रकार हैं, जिस प्रकार से भगवान ने वताए हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व का प्रथम लक्षण-देव को देव के रूप मे जाने, देवकथित वात को भी उसी रूप मे समझे व कवूल करे, यह शान्ति की प्राथमिक भूमिका है। , -
निश्चयनय की दृष्टि से स्वभाव-परभाव अथवा स्वभाव-विभावरूप आत्माअनात्मा आदि का जैसा रूप है, अच्छा या बुरा, उसे वैसा ही, उसी रूप मे माने। अव शान्ति के दूसरे सोपान के बारे मे कहते हैं
आगनधार गुरु समकिती, किरिया संवर सार रे ! सम्प्रदायी-अवंचक सदा, शुचि अनुभवाधारं रे !
॥शान्ति०॥४॥
___ अर्थ
जो आगमो का ज्ञाता (धारक) हो, सम्यग्दृष्टि हो, संवरप्रधान शुद्ध धर्मक्रिया करने मे तत्पर हो, सम्यक् विचार और आचार का मार्गदर्शन देने वाले धर्मसगठन का सदस्य हो, अवचक = निष्कपटभाव से प्रवृत्ति करता हो, सदा पवित्र अन्त करण वाला हो, शुद्ध आत्मानुभवी हो, ऐसे गुरु का आधार शान्तिपद के लिए आवश्यक है । यह शान्ति की दूसरी शर्त है ।
भाष्य ... योगाऽवचक गुरु का योग : शान्ति का द्वितीय सोपान