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________________ ११० अध्यात्म-मगन पर अच्छी-चुरी राभी वस्तुबो गा प्रतिविम्ब पढना है, लेकिन दर्पण पर उनवा कोई असर नहीं होता, वह स्वच्छ और निर्मन रस्ता है, वैने ही प्रम ना चरण भी निर्मल निर्विकार रहता है, उस पर भी मगार के विकारों का कोई मगर । नहीं होता, उनके ज्ञान में सभी अच्छी धुरी वस्तुओं की पलक पाती है, लेगिन उन पर कोई असर नहीं होता। यहां मुमनिनाथ नामक पात्र तीर्थकर की स्तुति का प्रमग होने से 'नुमतिवरण' कहा है, परन्तु 'दोपरहित जीतराग परमात्मा का चरण' ही समझना चाहिए। चूंकि इन स्तुति में आत्मसमर्पण करने वाला व्यक्ति मुमुक्षु है, अध्यात्म-रमिक है, वीतरागपथ का राही है, इसीलिए 'मुनानी' शब्द से उगे सम्बोधित किया गया है। इग कारण ऊपर वताए हुए किसी भौतिक शत्तिशाली, वैभवशाली, योदा या रागी-नेपी प्रभु के चरणो मे आत्मसमर्पण करने का तो सवाल ही नहीं उठना। जो काम, प्रोध आदि अठारह दोपों से रहित, निविकारी, निस्वायं, निस्पृहा, नमगावी वीतराग परमात्मा हैं , (उनका नाम चाहे जो हो) उन्ही के चरणों में आत्मसमर्पण करना चाहिए। रागी, द्वेपी या लौकिक व्यक्ति या भौतिक शक्ति के आगे नमर्पण करने से सुनानी के आत्म-गुणों का विकास होने के बदले हाम' ही होगा। अध्यात्मविनान का एक सिद्धान्त है कि 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवनि तादृशो', जिसकी जैसी भावना होती है, वमी ही कार्य सिद्धि हो जानी है। जो जिस पर श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही बन जाता है । इसके अनुसार अगर कोई साधक भौतिया-शक्तिसम्पन्न देख नार नागी, क्रोधी, विकारी को अपना आदर्श मान कर उसके चरणो मे समर्पण कर देता है, उनके प्रति पूर्ण श्रद्धा रखता है, तो उसके भी वैगा ही बन जाने की सम्भावना है, उससे उनकी आत्मशक्तियां प्रगट नहीं हो सकेंगी, उनके आत्मगुणो का विकास नहीं हो सकेगा। इमलिए आदर्श को छोटा या नीचा कदापि नहीं बनाना चाहिए। यही कारण है कि इस स्तुति में निर्दोप एव निर्विकारी-वीतराग परमात्मा के चरणो मे साधक को आत्मसमर्पण करने का कहा गया है। यानी अध्यात्म १ यो यच्छूद्ध · स एव स --भगवद् गीता ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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