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परमात्मा के चरणों मे आत्मसमर्पण
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चाहता है । अथवा तथाकथित प्रभु के आगे नाच-गा कर, उनकी जय बोल कर, उनके गुणगान करके, उनकी चापलूमी करके, बिना कुछ त्याग व पुन्पार्थ किये मिर्फ उनको रिझा कर उनकी कृपा प्राप्त करना चाहता है, अथवा नाटकीय ढग से औपचारिक रूप मे शब्दो मे कहना है-'यह सब प्रभु का है, परन्तु अन्तर मे सभी चीजो पर अहत्व-ममत्व का सर्प फन फैलाए बैठा रहता है , प्रभु की आज्ञा की ओट मे सभी कार्य मनमाने ढग मे करता है, स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है । परन्तु ये सब आत्मा के निजी (अनुजीवी) गुणो के विकास मे वाधक है , इमी दृप्टि गे श्रीआनन्दघनजी को कहना पडा-आत्मसमर्पण, और वह भी निर्दोष, नि स्पृह, निर्विकारी परमात्मचरणो मे किये बिना आत्मविकामेच्छुक साधक की कोई गति नही है । इसके विना उसके सकल्प-विकल्प मिट नहीं सकते, उसकी बुद्धि को सन्तोप नही हो सकता, उसके तन-मन को शान्ति नहीं मिल सकती । और जब तक विकल्प और योगो का चापल्य कम नही होगा, तब तक आत्मविकास होना दुष्कर है , परमात्मभक्ति होनी कठिन है । इसीलिए परमात्मभक्ति १ के लिए आत्म-समर्पण व शीप-समर्पण मत कवीरजी ने अनिवार्य बताया है।
आत्म-समर्पण का स्वरूप ___ सर्वप्रथम सवाल यह है कि आत्मसमर्पण क्या है ? इसका स्वरूप क्या है ? जव तक इसे समझ न लिया जाय, तव तक आत्मसमर्पण की बात अधूरी और औपचारिक या शाब्दिक ही रहेगी।
__जैनदर्शन मे 'विनय' मे उसका समावेश किया गया है, उसके लिए जैनशास्त्रो मे 'अप्पाण वोसिरामि' शब्द का प्रयोग जगह-जगह किया गया है उसका तात्पर्य है-अपनी अहता-ममता, अपनी लालसा, अपनी इच्छाकामना, वासना, अपनी स्वच्छन्दता, अपना स्वार्थ, अपनी समस्त उहाम एव चचल वृत्तियां, अपने गुप्त मनोभाव, अपने समस्त दुर्विचारो, दुष्कार्यों व
"भक्ति भगवत की बहुत बारीक है। शीश सोप्या बिना भक्ति नाहीं।"