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अध्यात्म-दर्शन
है कि आत्मा के बारे में जरा-गी जानकारी पा लेने गार गे, आमा और जद की पारिभापिक शब्दावली को घोट लेने ने वा अध्याता की चाने वधारने मात्र से ही किसी व्यक्ति को आध्यात्मिक या आत्मविवार की परिपूर्णता पर पहुंचा हुमा नहीं कहा जा सकता । इलिए एन साधया ने अध्यान्मभानो पर करारा व्यग किया है-कलावध्यात्मिनो भान्ति फाल्गुने बालका यया' इस कलियुग मे आध्यात्मिक होने का दावा करने वाले ऐसे प्रतीत होते है। जैसे फाल्गुन महीने मे होली पर अच्छा वालक हो तो भी अपशब्द बोलने का मजा लूटता है । जिन्हें अध्यात्म का क स ग भी नआना हो, भी थे उच्चस्वर से अपने मे आध्यात्मिकता होने का दावा करते हैं। इसलिए श्रीमानन्दघनजी हमी स्तुति में आगे अध्यात्म क्या है ? गच्चा आध्यागिक कौन है ? इसका पुर्जा-पुर्जा खोल कर वास्तविक रहस्य बताते है।
__ मच्चा आध्यात्मिक वनने या अध्यात्म की पुणता तक पहुँचने पे लिए वीतरागपरमात्मा के आदर्श को सामने रखना और वे जिग आत्मविकाग के मार्ग पर चल कर अध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहन है, उनके स्वरूप तया मार्ग को जानना अत्यावश्यक है। क्योकि आत्मोत्थान या आत्मविकास के पथ पर चल कर वे आध्यात्मिकपूर्णता ता पहुँचे है, उन्होंने जात्मविकास का सिद्वान्त को पूर्णतया जाना था। इगलिए वे इन मार्ग के पूर्ण विशेपन है । जो जिस मार्ग का पूर्ण विशेपज्ञ या अनुमवी होता है, वही उस मार्ग को बता सकता है अथवा उनी से उस मार्ग की जानकारी प्राप्त हो सकती है। परमात्मा आध्यात्मिक विकास का श्रीगणेश करते समय आतारामी रहे हैं , यानी वे परभावो, वैभाविक गुणो या परपदार्थों से लगाव छोड कर अपनी आत्मा के गुणो मे या स्वात्मस्वभाव में सतत रमण करते रहे हैं। और सामान्य प्राणियो की आत्मा पर जो परभावरूप कर्म या राग पादि विकार हावी हो जाया करते है परमात्मा उन कमों या विकारो को नमा देते हैं, अपने अधीन कर लेते हैं, उन इन्द्रियो एव मन को अनुशासित कर लेते हैं, उन्हे अपने पर हावी नहीं होने देते, इसीलिए वे अरिहन्त या जिन के नाम से ससार मे नामी (प्रसिद्ध) है। यही कारण है कि वे आत्मज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँच जाने से अन्तर्यामी बन गये हैं । जव ज्ञान इतना निर्मल हो जाता है कि उसमे कोई विकार या सशय-विपर्यय-अनध्यवसायरुप दोप नहीं होता, तब वह केवलज्ञान हो जाता है, जिसके जरिये समस्त चराचर