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अध्यात्म का आदर्श . आत्मरामी परमात्मा
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जगत् हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है, उसके लिए कोई भी वस्तु परोक्ष नहीं रहती, उस ज्ञान मे कोई भी अन्तराय, वाधकतत्त्व या क्षेत्र -काल की दूरी की अडचन नहीं रहती। इसलिए इस पूर्णज्ञान के धनी होने से परमात्मा घट-घट के भावो को जानते हैं, वे पारगामी हैं। साथ ही आध्यात्मिकता की पूर्णता पर पहुंच जाने की उनकी निशानी यह है कि उनमे रागद्वे पादि नहीं रहे, उन पर उन्होने पूर्णतया विजय प्राप्त व रली है। इसी आध्यात्मिक पूर्णता के फलस्वरूप वे अनायास ही मुक्तिपदगामी बने हैं, सिद्धपद पर पहुँचे हैं।
जैसे फल पक जाने पर विना ही प्रयास के वह पेड से टूट कर नीचे टपक पडता है, वैसे ही आध्यात्मिकता (आत्मस्वरूप मे सततरमणता) परिपक्व हो जाने पर परमात्मा भी परभावो से अलग हो कर अथवा कर्मों से पृथक हो कर स्वाभाविक रूप से अनायास ही-मोक्ष मे जा पहुँचते हैं।
निष्कर्प यह है कि विकास या आध्यात्मिकता के चरम शिखर (आदर्ण) तक पहुँचने के लिए आत्मा आध्यात्मिकता के चरम शिखर पर पहुंचे हुए वीतराग अन्तर्यामी आत्मरामी नामी परमात्मा (उनका नाम चाहे थेयामनाथ हो या और कुछ हो) को आदर्शरूप मे सामने रखना आवश्यक है।
कोई कह सकता है कि क्या दुनिया मे श्रेयासनाथ जिन के सिवाय और कोई पूर्ण आध्यात्मिक या आत्म रामी नही हुआ? यह तो घर के देव, घर के पूजारी वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। इसका क्या सबूत है कि दुनिया मे और किसी धर्म मे आध्यात्मिक हएही नही ? इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने श्रेयासनाथ की स्तुति के बहाने से इस गाथा मे बताए आध्यात्मिक के विशिष्ट गुणो पर से सभी आध्यात्मिको परीक्षा ले डाली है और आध्यात्मिको की जांच के लिए कुछ कसौटियां भी बता दी है। उन्होंने 'जिन' शव्द से किसी व्यक्तिविणेप का नाम न ले कर जिस किसी नाम के जिन (रागद्वेप-विजेता) हो, उन्हे आत्मरामी, नामी, अध्यात्ममतपूर्णगामी एव अन्तर्यामी बता कर उनके आदर्श को स्वीकार करने की बात कही है। अगली गाथा मे वे आत्मरामी की कसौटी बता रहे हैं---