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'प्रध्याग-दर्शन सयल संसारी इन्द्रियरामी, मुनिगण · आतमरामी रे। मुख्यपणे जे आतमरामी, ते केवल निकामी रे।। श्री श्रेयांस ॥ २॥
अर्थ सतार में रहें हुए अयवा समार के कारणों को सेवन करने वाले (ममार को अपना मानने वाले) जीव पांचो इन्द्रियो के २३ विषयो मे रमण करने वाले (आसक्त ) हैं। अगर कोई आत्मा (आत्मगुणों) में रमण फरने वाले है तो क्षमादि-दश विध मुनिधर्म का पालन करने वाले मुनि है। मुख्यतया केवल वे ही आत्मा में रमण करने वाले हैं, जो कामना [लोग, आमक्ति आदि] अथवा काम (विषयो मे आसक्ति) मे रहित हैं।
भाष्य
आत्मरामी का मुख्य लक्षण पहने यह बताया जा चुका है कि जो पूर्ण आध्यात्मिक होता है, वह नर्वप्रयम आत्मरामी होता है । परन्तु नवाल यह होता है कि आन्म नमी किये समझा जाय ? बहुत-से आत्मा-आत्मा की रट लगाने वाले जगह-जगह आश्रम बना कर या किसी कुटिया में अपना देग जमा कर लोगों को भुनाव में डाल देते है, बहुत-गे चालाक लोग कुछ हाय की सफाई या वाद्य चमत्कार बना कर अपने को आत्मरागी बताते हैं। बहुत ने लोग भागमणता का प्रदर्शन करने के लिए नृत्य, गीत, गगीत, घुन, कीनन या प्रवचन आदि ने बडे-बटे आयोजन करते है, शाही ठाटबाठ में त्रेपचे रह पार पात्रो इन्द्रियो का विपत्रास्वादन करते हुए अपने को आत्मारामी या पहुचे हुए महान्मा घोषित करते रहते हैं। बहुत-से लोग शरीर मे गख रमा कर, गाजे-सुलफे का दम लगा कर या गराब के नशे में मस्त हो कर अपने को आत्मगमी के रूप में प्रसिद्ध करते रहते हैं, अपने को अध्यात्मयोगी बना कर सभी प्रकार के इन्द्रियविपयो के मुख लूटते रहते हैं, वे ऐश-आराम मे रातदिन मशगूल रहते है । मुखसुविधाओ और भोगो के गुलाम बने हुए ऐसे नकली तथाकथित आत्मारामी लोगो मे मावधान करते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते है--'सयल समारी
१ 'गण' के बदले अधिकाश प्रतियो मे 'गुण' शब्द है ।