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"कोई पतिरंजन अतिघणो तप करे रे, पतिरंजन तनताप ।
ए पतिरजन में नवि चित्त धयु रे, रजन धातु-मेलाप ||ऋषम० ॥४॥ रूढ़िगत तपश्चर्या की सभी साधको मे बडी लम्बी परम्परा रही है। उस पर यह व्यग्योक्ति है कि पति को खुश करने के लिये कुछ अतिघोर तप करते हैं और शरीर को तपाना ही पतिमिलन का हेतु मानते हैं, किन्तु मेरे चित्त मे वह नही रुचा है, मुझे वह उचित नहीं लगा है। पतिरंजन तो धातुमिलाप ही है, पति-पत्नी की एकरसता ही है, तन्मयता ही है। धातु-मिलाप के क्षण ही पतिरजन के क्षण हैं। इस प्रकार परमात्म-प्रेम का अद्भुत विश्लेपण यहाँ पठनीय है। __श्रीआनन्दघनजी अजित-जिन के दर्शनोत्सुक बन कर उनके पथ को निहार रहे हैं, उनकी बाट जोह रहे हैं।
परन्तु किस पथ से प्रभु का मिलना होगा? वह पथ कौन-सा है ? उसे कैसे पहचाना जाए? इसी समस्या मे जगत् की उलझन का चित्रण करते हुए आप लिखते हैं
"चरम नयणे करी मारग जोवतां रे, भल्यो सयल ससार । नेण नयण करी मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य विचार |पथडो॥२॥ पुरुष-परम्पर-अनुभव जोवता रे अन्धो अन्धं पलाय । वस्तु विचारे रे जो आगमे करो रे, चरणधरण नहीं ठाय ॥५०॥३॥
अहा | उस पथ को निहारने के लिये इन चर्मचक्षुओ का काम नहीं है, वहां तो दिव्यनयनो की आवश्यकता है।
" कुछ लोग कहते हैं-- 'परम्परागत मार्ग सही है" ऐसी मान्यता वालो पर तीखा कटाक्ष करते हुए वे लिखते हैं कि 'अन्धे के पीछे अन्धे हो रहे हैं।' जो मार्ग दिखाने के लिए अगुआ बना है, वह स्वय अन्धा है-वह स्वय कभी उस मार्ग को देख नहीं पाया है, तो उसके पीछे चलने वाले अन्धानुकरण करने वाले तो मार्ग पा ही कैसे सकते हैं ? इमी पद के उत्तरार्ध मे एक गहरी बात कह देते हैं। यदि वस्तुतया आगमकथनो पर विचार किया जाए तो पर रखने का भी स्थान नहीं है। कहां आगमो की असिधारा--जैसी अत्यन्त तीक्ष्ण एव अहिदृष्टि जैसी सतत जागरूकता की साधना और कहाँ आज के साधको की सुविधा-परक वृत्ति । हा ! कैसे मार्ग पाया जा सकता है ?
कही-कही श्रीआनदघनजी की 'अन्तश्चेतनां प्रभु के प्रति अतीव उत्कण्ठित होती हुई अपनी सुमति नामक सखी से कैसे भावभरे शब्दो मे कहती है