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________________ (10) आनन्दघन चोवीसी 'जयन्तु ते सुकृतिनः, रससिद्धा कवीश्वरा', नास्ति येर्पा यश काये जरामरणजं भयम् ।" सही कहा है कृतिकार अतीत के गाढ अन्धकार मे विलीन हो जाते हैं, पर उनकी मर कृतियो पर काल का फर कटाक्ष प्रभावी नही बन पाता । युग-युगान्त वे कृतियाँ अखण्ड ज्योति विरोती रहती है, पथ प्रणा बनाती रहती है और गुमराही को सही राह दिखलाती रहती हैं । अध्यात्मयोगी श्रीमानन्दघनजी की चोत्रीमी एक ऐसी ही अनुपम कृति है, अद्भुत देन है या सहज आत्मिक उद्गार है। जिन्हें पहने वाला माधक मस्त हुए बिना नही रह मक्ता, झूमे बिना नही रह सकता ओर कुछ अपने हृदय को छू रहा है ऐसा अनुभव किये बिना नही रह सकता । उनके एकएक पद कुछ अनूठी तात्विकता लिये हुए प्रस्फुटित हुए है । भाषा को सज्जा का वहाँ कोई ध्यान नहीं है । वहाँ तो भावना ही माकार वन कर निखरी है । अपनी अकृत्रिम निराली मस्ती में ही सरस्वती ने पवित्र पदन्यास किया है । सहज सरल शब्द भी अनेक अर्थों के अभिव्यजक बने दिखाई देते हैं । अभिधा लक्षणा के पीछे मानो ध्वनियाँ कुछ अनिभव प्रकाण विमेर रही हैं । स्पों की तो वहाँ भरमार है । प्रथम पद हो अण्ड अनन्त प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है । ऋषभ जिनेश्वर को प्रियतम पद पर प्रतिष्ठित करती हुई शुद्धचेतनारूप नन्नारी अपने प्राणेश्वर के प्रेम का वर्णन करती है। देखिये "ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो ओर न चाहूं रे फन्त । रोझयो साहेव संग न परिहरे, भागे सादि अनन्त ।। " उन्होंने सादि अनन्त के भग से अपने देव की प्रीति को पुकारा है, अर्थात् जिस प्रेम की आदि है- प्रारम्भ है, पर अन्त नही है-अनन्त है । अहा ! कैमो अद्भुत एव निराली प्रीति है । जगत् का प्रेम सोपाधिक है, किन्तु यह प्रेम तो निरुपाधिक है । उपाधिजन्य प्रेम तो, यह कुछ मांग रहा है, चाह कर रहा है, वह असली होने न होने पर प्रेम का सद्भाव एव तिरोभाव हो तो प्रेम हो - इस प्रकार प्रेम कहाँ ? मांग की पूर्ति जहाँ हो, वहाँ वास्तविकता' 1 कहाँ ? प्रेम की सच्चाई कहाँ ? श्री आनन्दघनजी इमी स्तवना मे एक वडी क्रान्ति की बात कह ht डालते हैं
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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