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प्रस्तावना
अध्यात्म एक ऐसी भूमिका है, जिसका आनन्द शन्दगम्य नही अनुभव. गम्य है। वह किसी से पाई नही जाती, अपनाई जाती है। वह एक ऐसा सरस रस है, जिसका आशिक स्वाद भी जीवन मे आमूलचूल परिवर्तन ला देता है । मत-सम्प्रदाय की जड धारणाएं, संकुचित बाडावन्दी और अह की भेदरेखाएँ वहां स्वत तिरोहित होने लग जाती हैं। एकात्मभाव की अनुपम अनुभूति सर्वत्र मैत्री की गाथा को मुखरित कर देती है और 'एक एव भगवानयमात्मा' की ध्वनि स्वत गू जने लग जाती है। अहा ! यह एक निराली ही मस्ती है, अनूठा ही फक्कडपन है, विचित्र आत्मदशा है। अध्यात्मयोगी की कल्याणी वाणी कुछ भव्य भावभगिमा को धारण कर लेती है। उसकी दृष्टि कुछ अन्यादृशी सृष्टि के लिये ही अमृतवृष्टि करती रहती है। उसके रोम-रोम मे से अजस्र कल्याण का स्रोत बहता रहता है।
स्वनाम-धन्य अध्यात्मयोगी श्रीमानन्दधनजी को जैनजगत् का कोन विज्ञ नही जानता ? उनकी अद्भुत अध्यात्मरस से ओतप्रोत कुछ कृतियां ही उनका यथार्थ परिचय है। मत-सम्प्रदाय की सीमाओ को तोड कर उन्होंने उन्मुक्त मुनिव्रत को स्वीकारा था। दिगम्बर-श्वेताम्बर की सारी उपाधियो को उन्होंने दूर रख दी थी। उसी का ही परिणाम है कि आज सारा जैनसमाज उनकी तात्त्विक कृतियो को ससम्मान आत्मसात् कर रहा है, अपना रहा है और उन्हे गौरव प्रदान कर रहा है। आश्चर्य ही क्या ? गगा का पानी तो सभी के लिये गगा का पानी ही है, उसके नर्मल्य-माधुर्य आदि गुण सभी को एकरूपता प्रदान करते है। जैन हो, चाहे अजैन, हिन्दू हो चाहे मुस्लिम, स्वदेशी हो या विदेशी, गगा का पानी सभी की प्यास बुझाता है, शान्ति प्रदान करता है।