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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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गाता, उगके जन्ममरण की बृटि भी नही होनी । यह नो कुछ-कुछ निश्चय दृष्टि ने सगत बात हुई। ____ व्यवहारदृष्टि से अर्थ यह है कि प्रभो । मालिक ! आप पूर्ण समर्थ हैं आप मे अनन्त बल है, उगके सागने कोई टिक नहीं सकता । साथ ही आप मेरे नाप है। गुरु पर आप सरोसे ग्वामी की छपवाया है, कृपादृष्टि है, तब दूगरा चया र साना है ? बाम्नतिक दृष्टि गे देखा जाय तो परमात्मा वीतराग होने गे वे दूगरों को प्रत्यक्ष मे को बल देते- लेते नजर नहीं आते। किन्तु जब गेवक समर्पणवृत्ति गे गुदभावत्तिपूर्वक प्रभु के चरण में दृटमकाप करतो अपना जीवन खपाने का हन्ट निश्चय कर लेना है और ध्यानमुद्रा मे बैठ कर प्रभु के गुणों का ध्यान करता है तो उसमे वल और पीरुप रचय स्फुरित हो जाता है, परमात्मा के जनन्तशक्तिशाली स्वरूप का ध्यान करने से आत्मा में भी शनि प्रगट करने का उत्साह जग जाना है।
दूसरा कारण परम उदार प्रभु लोकव्यवहार में देखा जाता है कि गेवक स्वामी की सेवा करता है, तो वह खुश हो कर सेवक की तनख्वाह बढ़ा देता है, उसकी लगन देख कर उरो इनाम दे देता है, उसकी पदोनति कर देता है । इसी दृष्टि गे श्रीआनन्दघनजी कहते है'पाम्यो परम उदार' यानी आप परम उदार-चेता है। इसका निश्चयदृप्टि से मगन अर्थ यह है कि परमात्मा (गुद्ध आत्मा) इतना उदार है कि उमकी सेवा (आत्मम्बाव में रमण या आगा के गुणो या आत्मा का गवन) करने से मम्यग्दृष्टि व्यक्ति परमात्मा से यह आश्वासन पा जाता है कि अब तू आश्वस्त हो जा, तेरी दुर्गनि या जन्ममरणवृद्धि तो अवश्य ही नहीं होगी। यदि कोई निर्यन या मनुष्य परमात्मत्त्व (पद स्वभाव या आत्मगगो) की सेवा-ध्यान करता है तो उसकी आत्मोन्नति हुए विना नहीं रहती, पदोन्नति भी हो जाती है। यानी पापकर्मी से भारी बनी हुई आत्मा लकी हो जाती है। इससे पुण्यकर्मों की प्रबलता हो जाने पर उस जीन को परमात्मा की रोवा-गुजा करने के विचार उठते हैं, वह उग पुण्यगणि के फलस्वरूप दुगनि मे न जा कर मनुष्यगनि या दवगति मे जाता है । यह उस जीव की पदोन्नति है । तथा पुण्यपु ज के फलस्वरुप शुभभावो की शृखला शुरू हो जाती है, जिरामे आत्मा पर आए हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है या अशुभकर्म का जोर अत्यन्त कम हो कर गुभ मे बदल जाता है । यह आत्मोन्नति हुई।