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अध्यात्म-दर्शन
बंधन कट गए। और मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे विश्व का सर्वोत्तम बहुमूल्य आत्मशान्तिरूपी धन आत्मा मे ही असीम-फलदाता आप सरीखे समर्थ दानी प्रभु से मिल गया, तब मैं अपने आपको ही नमन करता है, जिसकी आप जैमे परम शक्तिमान पुरुष से भेंट हुई । वास्तव में देखा जाय तो निमित्त अच्छे से अच्छा, ऊंचे मे ऊंचा मिल जाने पर भी उपादान (स्वय की आत्मा) यदि शुद्ध या या अनुकूल न हो तो कोई भी कार्य नहीं हो सकता । शान्तिस्वरूप के प्रम्पक शान्तिनाथ तीर्यकर से होते हुए भी जिज्ञासु, विनीत, कृतज्ञ और स्वरूपग्राहक आत्मा न हो तो यथेष्ट फल नहीं मिलता । इसी दृप्टि मे यहां अपनी आत्मा को प्रफुल्लित हो कर साधुवाद दिया है कि उसने शान्तिस्वरूप की चाबी पा ली। इसलिए वह स्वय को ही नसन करता है, भाग्यशाली एव कृतकृत्य मानता है । अपरिमित फल वास्तव मे मोक्षरूप फ्ल है, मसार से मुक्ति है , जिसे पाकर कुछ भी पाना वाकी नहीं रहता। वास्तव मे परमात्मा कोई मोक्षरूप फल उठा कर हाथ मे नहीं देते । वे तो मार्ग बता देते हैं, उपादान को शुद्ध जोर ग्रहणशील रखना अपनी मात्मा का काम है, यह वहा कठिनतम काम है। इसी प्रकार साधक आत्मा को ही नमन करता है। परमात्मा के साथ आत्मा का इस प्रकार का द्वैत व्यवहारनय मे होता है । निश्चयनय की दृष्टि से स्वय आत्मा स्वय को समझने वाले अन्तरात्मा को ही नमस्करणीय समप्त कर वार. वार नमन करता है। वास्तव मे तत्वज्ञ की दृष्टि मे आत्मा-परमात्मा दोनो अभिन्न होने से दोनो ही नमस्करणीय है । जव आत्मा मे बहिरात्मभाव मिट कर अन्तरात्मभाव प्रगट होता है, तब स्व-आत्मा पर ही निम्नोत्तरूप से पटकारक घटित हो सकते हैं
१ कर्ता- मेरे आत्मगुणो का कर्ता मैं ही हूँ। २ फर्म- मेरे स्वाभाविक गुण-कर्म की क्रिया-(कर्म) का कर्ता मैं ही हूं। और वैभाविक कर्म का विच्छेद करने की क्रिया (कर्म) का कर्ता भी
३ करण- मेरे स्वाभाविक ज्ञानदर्शन-चारित्र द्वारा मेरे से ही आत्मस्वरुप प्रगट होता है।
अहमेव मयाऽऽराध्य -यह भी कहा है।