________________
परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
३४७
४ सम्प्रदान • मेरे लिए मेरा आत्मा ही नमस्करणीय है, मैं अपने को
ही नमस्क र करता हूं। ५ अपादान-मेरे विभाव से मेरे स्वभाव मे आने वाला मैं ही हूँ। ६ अधिकरण - मेरी आत्मा के अत्यन्त गुणो का स्थान (आधार) मेरा
आत्मा ही है। इस गाथा मे 'तुज' और 'मुन' आत्मा हैं, वे दोनो अन्तरात्मा को अन्तरात्मा के सम्बोधन के सूचक हैं। यव उपस हार करते हुए श्रीआनन्दघनजी अपनी बात कहते हैंशान्तिस्वरूप संक्षेपथी, कह्यो निज-पर-रूप रे । आगममाहे विस्तार घणो, कह्यो शान्तिजिन-भूप रे ॥
शान्ति०॥१४॥
अर्थ इस स्तुति मे आध्यात्मिक शान्ति का स्वरूप अत्यन्त संक्षेप मे बताया है। निज (प्रवचनकर्ता) और पर (श्रोता) दोनों ही भन्यप्राणियो के स्वभाव (रूप) को ले कर अयवा पररूप दोनो की अपेक्षा से शान्तिनिजराज और तीर्थंकरो द्वारा उपदिष्ट आगमो मे इसका शान्तिस्वरूप बहुत विस्तार से वर्णन किया है।
भाष्य
शान्तिस्वरूप वर्णन . स्वपररूप से इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी स्वय अपनी ओर से कहते हैं कि शान्तिनाथ भगवान द्वारा स्व और पर दोनो अपेक्षा से प्ररूपित शान्ति का स्वरूप मैंने अकित किया है । अथवा निज=आत्मा का रूप, पर=परमात्मा के रूप मे अथवा आत्म-रूप की प्राप्ति के लिए तथा पर=परमात्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए शान्ति का स्वरूप कहा है । यद्यपि आगमो मे बहुत ही विस्तृतरूप से शान्तिजिन-राज एव अन्य तीर्थकरो द्वारा आत्म-वर्णन है । इसमे दो बाते विशेषरूप से फलित होती हैं--एक तो यह है कि वाचनाभेद होते हुए भी तीर्थकरो के आगम (सिद्धान्त-ज्ञान) समान होते हैं, क्योकि प्रत्येक की सर्वज्ञता एकसरीखी होने से सर्वज्ञो का ज्ञान एक सरीखा होता है । जगत् मे मोक्षमार्ग अनादिसिद्ध होने से प्रत्येक तीर्थकर इसी का उपदेश देते हैं ।