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________________ ३४८ अध्यात्म-दर्शन इसलिए विभिन नीर्य करो के तीर्थ अलग-अलग होते हुए भी उन्हें संयं तीर्थकगे के कहने में कोई जापत्ति नहीं । इनके अनुसार वर्तमान बागम को श्री शानिन्गय प्रभु के द्वारा उपदिष्ट कहने में कोई विरोध नहीं है। दूसरी बात यह है कि यद्यपि शान्ति म्वरप का वर्णन नागमो में बहुत ही विस्तृतरूप में किया है, यहाँ तो मक्षिप्त वर्णन है। जिन्हे अत्यन्त बिस्तार में पढ़ना हो, इस विषय मे पूर्णरूप से अवगाहन करना हो, उन्हे मून मागम-गन्य पढ़ने चाहिए। और वहाँ ने शान्ति का विवरण प्राप्त करके उसे समझना, फिर तदनुसार आचरण करना आवश्यक है। ___ इस स्तुति में सक्षेप में शान्तिम्वरूप बताने का उद्देश्य यह है कि नक्षेप मे कथन ने मनप्य को उसमे रचि रहती है और विस्तार से पढने की रुचि भी जागती है , जिसमे ज्ञानवृद्धि हो सकती है। श्रीआनन्दघनजी इस गाथा के अन्त में अपनी नम्रता प्रगट करते हुए करने है कि-'कहो श्रीजातिजिनभूप रे ' अर्यत्-मैं इस शान्ति का स्वरूप अल्पज्ञ होने के कारण पूर्णतया यहने में समर्थ नहीं है, यह को शान्ति-स्वरूप का वर्णन किया है, उसे आगमो मे शान्तिजिनेश्वर ने कहा है। शान्तिनाथ भगवान् ने अपने आत्मस्वरूप का माक्षात्कार किया, जिनागम मे उनका अनेक प्रकार से वर्णन हैं। जैना उनमा शान्तस्वरूप है, वैमा ही प्रत्येक (शुद्ध) आत्मा का है। श्रीशान्तिनायप्रभु ने ममताभाव का त्याग करके समताभाव को ग्रहण किया और तपसयम की निरवच करणी या स्वल्परमण के सातत्य मे शान्तम्वरुप प्राप्त किया, उसी मार्ग का आगमों में विस्तृत वर्णन है । इस स्तुति मे तो उसका बहुत ही सक्षिप्त कथन है । शान्तिस्वस्य भलीभांति जान कर उस पर चिन्तन करके आचरण करना चाहिए, अन्यया अनुभवहीन शुष्क ज्ञान से मति-भ्रम पैदा होगा, विसगनि एव उलझन होगी। इस दृष्टि से धीआनन्दघनजी अन्तिम गाथा मे कहते हैं शान्तिस्वरूप एम भावशे, घरी शुद्ध प्रणिधान रे। 'आनन्दघनपद' पामशे ते लहेशे बहुमान रे ।। शान्ति० ॥१५॥ d अर्थ इस (पूर्वोक्त) प्रकार ने शुद्ध प्रणिधानपूर्वक जो शान्ति के सदस्प पर विचार
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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