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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
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करेगा; यानी उसके पालन से भावित करेगा, सस्कारो मे सुदृढरूप से जमा लेगा, वह आनन्दधन (परमात्मा) का पद प्राप्त करेगा और जगत् मे बहुत ही बहुमान प्राप्त करेगा।
भाष्य शान्ति पर मनन, प्रणिधान और आचरण का सुफल : परमात्मपद इस गाथा मे शान्तिस्वरूप के पूर्वगायाओ मे वतार हुए उपायो और सिद्धान्तो पर मनन, चिन्तन और शुद्ध प्रणिधान के लिए जोर पर दिया गया है। चूंकि बहुत से लोग किसी महत्वपूर्ण बात या सिद्धान्त को पहले तो सुनते ही नही, सुनते भी हैं तो सूने मन से सुनते हैं, जिससे उस सुने हुए पर वे कोई चिन्तन मनन नही कर सकते। जब चिन्तन-मनन नही होता है तो उस बात मे कई प्रकार की भ्रान्तियाँ और गलतफहमियाँ होती है। यह भलीभांति श्रवण-मनन न करने का ही परिणाम है कि इतने-इतने सम्प्रदाय खडे हो गए। फिर उनकी अपनी-अपनी मान्यताओ की खीचातान, शब्दो की अपने-अपने दृष्टिकोण से अर्थवटना, कदाग्रह और अन्त मे सघर्ष | इसीलिए श्रीमानन्दघनजी शान्तिस्वरूप के श्रवण या पठन के बाद उस पर भावन - चिन्तन-पदन, चर्चाविचारणा, और अन्त मे उसके अर्थ को हृदयगम करने पर जोर दे रहे हैं । क्योकि धर्माचरण की कोई भी बात तभी गले उतरती है, या सस्कारो मे बद्धमूल हो सकती है, जब उस पर मन-वचन-काया की एकाग्रता (प्रणिधान) पूर्वक चिन्तन-मनन-निदिध्यासन किया जाय । तभी उसका यथेष्ट फल आ सकता है । यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी शान्तिस्वरूप (पूर्वोक्त प्रकार से) पर मनन-चिन्तन करके सस्कारो मे भावित करने का कहते हैं; वह भी शुद्धप्रणिधानपूर्वक । शुद्धप्रणिधान के तीन अर्थ होते है= १-शुद्ध आलम्बन मे मन-वचन-काया की एकाग्रता, २-मोझ, मोक्ष-साधक, मोक्ष के साधन उपादेय हैं, इनके सिवाय सर्व हेय हैं, ऐमा निश्चय, ३-स्वय आध्यात्मिक विकास की जिस भूमिका पर चल रहा हो, उस भूमिका मे रह कर उसके योग्य कर्तव्यो का एकाग्रतापूर्वक पालन करना। शान्ति के परम दर्शन की वात कोई उपन्यास या कहानी नहीं है कि झटपट पढी और फैक दी, इसे तो एकाग्रतापूर्वक पढ-मुन कर चिन्तन-मननपूर्वक जीवन मे