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अध्यात्म-दर्णन
है कि जब तक किमी चीज को छोडन और गरण करने की प्रक्रिया मालूम न हो, तब तक छोडने योग्य को छोड़ने और ग्रहण करने गोग्य गो ग्रहण करने का पुरपार्थ नहीं हो गकता। इसी कारण उस गाथा मे परमा-मा और आत्मा के वीच मे पडे हुए अनर के कारण प यु जनारण की प्रक्रिया को बनाया है, जबकि उरा अन्तर के दूर करने के कारणम्प गुणकारण की प्रप्रिया को बताया है।
सवाल यह होना है कि यु जनकरण और गुणकरण की प्रकिया कोई ट्याग की प्रक्रिया है या सहजयोग की ? काठिनतम किया है पा सरलतम ? इसके समाधान में इतना ही कहा जा सकता है कि योगीश्वर थीआनन्दघनजी म्वय जैनधर्म और जैनयोग के पुरम्पार्ता है. इसन्निए उन्होंने जैनधर्ममान्य महजयोग की ही प्रक्रिया प्रस्तुत की है, हय्योग की नहीं । ये करण-प्रक्रिया उन्होंने अपनी मन परिपन नहीं बनाई है परन्तु आगमो और धर्म-ग्रन्यों के आधार पर अनुभवी विद्वानों द्वारा बताई गई प्रक्रियाए है । जैन-आगमो के अनुगार आत्मा की यह नहज प्रक्रिया तीन करणो मे वर्गीकृत की गई है-यु जनकारण, गुणकरण और ज्ञानकरण । आत्मा की कर्मों के माथ जुड़ने (मयोग] की प्रक्रिया को यु जनकरण कहते है । यह क्रिया जाधवरूप है। म मिया का पता ममारी जीव है । सिद्र परमात्मा के माय ममारी जीव के मिलने मे जन्लराय ना कारण युजनकरण की क्रिया है । दूगग करण, जो ठीक इसके विपरीत है, गुणकारण है। जिसमे आत्मा अपने वास्तविक गुणो-ज्ञान-दर्शन-चारित्र मे रत या बिर हो कर क्रिया करता है, उस क्रिया को गुणकरण कहते हैं। इसी आत्मकिया को मॅवर कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा में रहे हुए कर्मबन्ध के कारणभून ससार-योग्यता नामक स्वभाव का प्रगट होना युञ्जनकरण है, यही भाव-आश्रव है और आत्मा को मोक्ष की ओर ले जाने वाले मुक्तियोग्य स्वभाव का प्रकट होना गुणकरण है, । यही भावसवर, निर्जरा और अन्त में मोक्ष है। ये दोनो स्वभाव जीव मे होते है, इनमे से एक ।
१ हरिभद्रसूरीय योगविन्दु ग्रन्थ मे कहा है
आत्मा तदन्यसयोगात् सतारी, तद्वियोगतः। स एव मुक्त एतो च स्वाभाच्यात् तयोस्तथा ॥६॥ अन्यतोऽनुहोऽप्यत्र तत्स्वाभान्य-निवन्धन. ॥