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अध्याग-शंग
(विपाक) वेः रागय में अगर गगनागाव ग या जात्मभावोग मिथर रह नहीं गकता, प्रत्युत राग, द्वेष मोह, लोग आदि करता रहा है। ली कारण आत्मा और परमात्मा के बीच में अन्तर पहा मा । अगर यह अन्तर नष्ट करना हो तो गर्वप्रथम कर्गबन्ध . कारणा-गि यात्वादि को पहले सर्वथा नष्ट कर दो । जव कमवन्ध के कारण नाट हो जायेंगे तो नये कामों ना बन्ध नहीं होगा, तथापि पुराने कर्म, जो गना मे प हैं, वे एक न एक दिन अपने-अपने विपाक (परिपाक) का फल दे कर अवश्य नष्ट हो जाएंगे । अत अगर तुमने इतना सावधानी रखी कि जब कम फल देने- भावे तव (प.लोपभोग र समय) समत्वभाव- आत्मभाव- में स्थिर रहोगे तो तुम्हारे पुराने मृतकर्म नष्ट हो जायग, और नये सिरे से नये कर्म आते हा पहले से ही एक जायेंगे । इस प्रकार कर्मों के समभावपूर्वक फलभोग होने से ही तुम्हारी आत्मा और परमात्मा के वीच मे जो अन्नर है, वह नहीं रहेगा। तुम जार परमात्मा एकमेक हो जाओगे। तुम्हारी आत्मा ही शुद्ध हो कार परमात्मा बन जानेगी। फिर परमात्मा और तुम्हारी आत्मा के बीन में न क्षेत्रकृत दूरी रहेगी, न कालत, ..
और न ही द्रव्यकृत अन्तर रहेगा, न भावकृत कोई लन्तर रहेगा। तात्पर्य यह है कि कर्मों को काट देने पर जीवात्मा और परमात्मा के बीच किसी प्रकार का अन्तर नहीं रहेगा। ___कई ईश्वरवर्तृत्ववादी धर्म-सम्प्रदाय ऐगा मानते है कि परमात्मा की कृपा होगी तो कर्म स्वयमेव कट जायेंगे अथवा कम फल देने वाले तो भगवान् हैं, उनसे माफी माग लो, उनकी सेवाक्ति (केवल गुणगान, चापलूमी आदि ) करके उन्हे रिहा लो। वे प्रसत हो कर पाप माफ कर देंगे, तुम्हारे पापकर्म धी देगे, उन सवका खण्डन इस गाथा से हो जाता है।
जब शुद्ववुद्धियुक्त गुरदेव या बानी पुग्प से यह रपट उत्तर मिल गया कि परमात्मा के और तुम्हारी आत्मा के बीच का अन्तर मिटाने का अचूक उपाय कर्मों को रागभाव गे भोग कर काटना है । तब श्रीआनन्दघनजी के मन
१. देखिए उन्ही के धर्मग्रन्य भगवद्गीता मे।
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । . . न कर्मफलसयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।