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आत्मा और परमात्मा के वीच अन्तर-भग
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से भी हमसे बहुत दूर चले गये, काल से भी वे कर्म नष्ट होते ही काफी पहले पहुंच गए, हम वहुत पीछे रह गए । द्रव्य और भाव से भी कर्मों के सर्वथा नष्ट होते ही उनके और हमारे बीच मे इतना अन्तर हो गया कि वे सिद्ध, बुद्ध मुक्त, अनन्तनानदशनमय हो गए, और हम अभी कर्मो से घिरे होने के कारण ही वन्धन मे जकड़े हैं, ससारी है, ज्ञान-दर्शन भी हम में अभी परोक्ष और अत्प हैं। राग-द्वेप-मोह आदि विकार भी कर्मो के ही कारण है, और इनके रहते और नये कर्म भी हम बाध लेते है।
परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच का अन्तर
जव यह निश्चय हो गया कि परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच मे काफी अन्तर है, और वह कर्मों के कारण है, तव श्री आनन्दघनजी इतने अन्तर को सहन न कर सके । वे परमात्मादर्शन के लिए तो जीवन-मरण की बाजी लगाने को तैयार हो गए और अन्तरात्मा की भूमिका तक आ पहुँचे, तव इस कर्म के अभाव और सद्भाव को ले कर रहे हुए अन्तर को दूर करने के लिए वे परमात्मा के सामने अन्तर्हदय मे पुकार उठे-"पद्मप्रम जिन तुझ मुझ आतरू रे; किम भाजे भगवंत?"
परन्तु परमात्मा तो अशरीरी, निरजन, निराकार, सिद्ध (मुक्त) होने के कारण उनकी यह आवाज सुन नही सकते, किन्तु अपने ज्ञान मे इसे जान तो सकते है, मगर ज्ञान मे जान लेने के बावजूद भी वे निराकार, अशरीरी, वाणी रहित होने के कारण उत्तर तो दे नही सकते । अत श्रीआनन्दधनजी की हार्दिक जिज्ञासा को शुद्धबुद्धि वाले गुरुदेव मुन कर बोले-'परमात्मा मे कर्म नहीं है, कर्मविपाक नहीं है, कर्मबन्धन का कारण ही नहीं रहा, इसलिए वे परम शुद्ध, वुद्ध, मुक्त, सहजानदी शुद्धस्वरूपी, सिह परम-आत्मा (परमात्मा) है, तुम मे अभी कर्म है, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय, योग आदि हैं, जिनमे तुम मे कर्म बन्धन का कारण है ! तुम मे कर्म-उपार्जन की क्रिया होती है, कर्म क्रिया से बनते हैं। इसलिए कर्मफलयोग (कर्मविपाक) तुम मे होता है। क्योकि कर्म ही बन्धनरूप वन कर शुभाशुभ फल चखाते है । जव तक ये कर्म फल दे कर (कर्म भोग कर) क्षय नहीं हो जाते, झड नही जाते, तव परमात्मा और आत्मा के बीच मे अन्तर रहेगा। जीवात्मा कर्म के फल भोगने