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अध्यात्म-वर्णन
के परिणाम बहिरात्म भाव रो हट जाते हैं और जिगनी परिणति और स्थिरता अन्तरात्मा मे हो जाती है, मा अन्तरागभावरत जीवात्मा ही परमात्मा बनने के लिए उत्सुक और तत्पर होता है। परन्तु, जब वह व्यवहान्दृष्टि से देखता है कि निश्नयष्टि से आत्मा और परमात्मा में नो अन्नर न होते हुए भी वर्तमान मे तो मेरे और परमात्मा के बीच मे तो करोडो नोमो का अन्नर है । मैं मध्यलोक मे है और परमात्मा लोक के अग्रभाग पर है, मेरे से सात रज्जूप्रमाण लोकभूमि पार करने के तुरन्त बाद, ही लोक के शिखर पर हैं। इतना अधिक फामला (Distance) नो मेरे और परमात्माने बीच में क्षेत्रकृत है । कालकृत दूरी भी है, कि भगवान् पद्मप्रभु अवपिणी काल के चौथे आरे मे मुक्त (सिद्ध) परमात्मा बन चुके है और मैं पनग आरे मे है , यानी काल का फामला भी काफी हो चुका है और जागे भी न जाने कितना काल अभी और लगेगा, आपके पास पहुँचने नक मे । द्रव्यकृत अन्तर भी परमात्मा के और मेरे बीच में काफी है। परमात्मा वर्तमान में सिद्ध है, मुक्त है, गति जाति-शरीरादि मे रहित है जीर में वर्तमान में सिद्ध बुद्ध-मुत्त नहीं हूँ। गनिजाति गरीरादि से मयुक्त है, में वर्तमान में मिद्धत्व मे रहित हूं, पर्यायरूप के अशुद्ध हूं। कहाँ वे शुद्धअनन्त ज्ञान-दर्शन-चारिय-वीर्य से युक्त और कहां में अल्पन, अल्पदर्शी, चारित्र और वीर्य में भी बहुत पिछड़ा हुआ । किनना अलर है । और भावकृत अन्तर भी परमात्मा के और मेरे वीच गे नाफी है । वे रागद्वेपरहित महानन्दी गुद्व और निखालिस आत्गभावो गे भरे हुए है, में जभी रागद्वेष-काम क्रोध-लोम-मान-मोहादि कपाय भावो से मयुक्त है। अत मुझे आश्चर्य होता है कि परमात्मा के और मेरे बीच मे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से जो इतना अन्तर (फासला) पड गया है, वह क्यो पा गया है ? जबकि द्रव्यम्वभाव की दृष्टि से मेरी और परमात्मा की आत्मा मे ऐक्य है, समानता है। अत. श्री जानन्दघनजी जिनामाभाव से पूछते हैं कि आपके और मेरे वीच मे जो इतना अन्तर पड गया है, वह किस कारण से है ? व्यवहारनय की दृष्टि से जब उन्होंने सोचा तो उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया कि परमात्मा के
और मेरे बीच में जो इतना द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकृत अन्तर पड़ गया है। उसका मूल कारण है-मेरे वैभाविक गुण का अशुद्ध परिणमन और निमित्त कारण है कर्म । क्योकि परमात्मा समस्त कर्मों से रहित होने के कारण क्षेत्र