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आत्मा के सर्वोच्च गणो की आराधना
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यहाँ ईश्वर (आत्मा) को सर्वव्यापी मानने वाले वादी फिर शका उठाते हैं कि क्या आत्मा परपदार्थत्व (परस्वरूप) को प्राप्त होता है ? उत्तर मे कहते हैंनही, मात्मा के अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव दूसरे पदार्थ मे सभव नहीं हो सकते और न दूसरे मात्मा मे सभव हो सकते हैं। इसलिए आत्मा परपदार्थ को प्राप्त नहीं होता। परन्तु आत्मा का जो निर्मल ज्ञान है, वह ज्ञेय के माकार मे परिणमन हो जाता है। किन्तु ज्ञान ज्ञेयाकार परिणत (ऐसा परभावप्राप्त) होने पर भी आत्मा दर्पण की तरह अपनी आत्मसत्ता मे स्थिर रहता है ।
यहाँ फिर यह शका होती है-यदि आत्मा परपदार्थ मे परिणमन नहीं पाता, स्वय अपनी आत्मा मे ही स्थिर रहता है और अन्य पदार्थों मे आत्मा के गुणचतुष्टय नहीं है, तब आत्मा अन्य सव पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार की शका 'वीसवीसी' ग्रन्थ मे उठाई गई है कि 1 "जीव यदि सर्वव्यापक नहीं है तो उसका जो धर्म-ज्ञान है, वह आत्मा से बाहर कैसे हो सकता है ? और धर्मास्तिकायादि से रहित' अलोक मे वह (ज्ञान और ज्ञानात्मा) कैसे जा सकता है ? "मतलब यह है कि किसी भी एक सर्वज्ञ आत्मा का ज्ञान लोकगत अनन्तपदार्थ, अनन्तद्रव्य व उनके अनन्तक्षेत्रो, अनन्तकालो और अनन्तभावो को तथा अनन्तपर्यायमय अनन्त-अलोकाका शगत को भी जानता है, तो किसी एक नियत स्थल में स्थित एक ही आत्मा का ज्ञानगुण उस आत्मा के बाहर तथा लोक के नाहर (जहाँ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय नही हैं।) अलोकाकाश मे कैसे जा सकता है ? कैसे गति कर सकता है ?
पूर्वोक्त शका का ममाधान अगली गाथा मे श्रीआनन्दघनजी कन्ते हैअगुरुल घ निजगुरगने देखतां द्रव्य सकल देखत । सु०॥ साधारण गुणनी साधर्म्यता, दर्पणजलदृष्टान्त; सु० ।।ध्रु० ॥७॥
अर्थ
आत्मा के अगुरुलघु (षड्गुणहानिवृद्धि रूप) गुण को देखते हुए वह समस्त द्रव्यो (पदार्थों) को देखता है। इस अगुरुलघु नामक साधारण एक
१ 'जीवो य ण सध्वगओ तो तद्धमो कह भवइ बाही"
कह वाऽलोए धम्माइविरहिए गच्छइ अणते ? ॥१८॥१८॥