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________________ ५२२ अध्यात्म-दर्शन अनागतपर्याय पलट जाती है, तव अतीतपर्याय वर्तमान पर्याय को धारण करती है। इन सर्वपर्यायो का भासनधर्म ज्ञान मे है। सिर्फ यह भासनधर्म दूमरे रूप में परिणत होता है। इममे ऐमा मामास होता है कि ज्ञान में विनाशी धर्म हैं। यद्यपि वह स्वकाल की अपेक्षा से अपने उत्पाद-व्ययरूप परिणमन को देखते हुए ज्ञान उत्पादव्ययरूप है तथापि उसका धर्म (ध्र वत्व) स्वसत्ता है, वह कदापि परमत्तारूप नही होता। इस तरह मिद्ध हुमा कि जीवद्रव्य स्वकाल से स्वमत्ता मे मदा अखण्ड पदार्थ है। स्वकाल ही स्वरूप है, परकाल परस्वरूप है। इसलिए स्वस्वरूपी पदार्थ पररूप बन नही सकता । परभावे करी परता पामतां स्वसत्ता थिर ठाण , सु०॥ आत्मचतुष्कमयी परमां नहि, तो किम सहुनो रे जाण ॥सु०॥ध्रु०॥६॥ अर्थ परपदार्थों का ज्ञान करने वाला आत्मा अपने सिवाय (पर) पदार्थों के भावो (पर्यायों) की अपेक्षा से परतत्व (परपदार्थ) को प्राप्त होने से स्व-आत्मा अपनी सत्ता (अस्तित्व) से कैसे स्थिर रह सकता है ? आत्मचतुष्क (अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनंतचारित्र और अनतवीर्य, ये आत्मा के चार गुण) परमेपरपदार्थ में नहीं होते, तो यह (पर मे मिला हुआ) किस प्रकार सकल पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) हो सकेगा ? भाष्य भाव से आत्मा का परत्व . ज्ञान-ज्ञय की अपेक्षा से पूर्वगाथाओ मे द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से आत्मा के ज्ञान और शय का विचार किया गया था, अब इस गाथा में भाव से ज्ञान-ज्ञेय का विचार किया गया है। प्रतिवादी शका प्रस्तुत करते हैं कि आत्मा जव पर पदार्थों का ज्ञान करता है, यानी वह अपने से भिन्न परमाणु, आकाश आदि का ज्ञान करता है तो उन परपदार्थों के भावो-पर्यायो का ज्ञान भी वह करता ही है, तव ज्ञान पर्यायभावमय हो जाता है, ऐसा होने से वह परत्व को प्राप्त हो जाय, यह स्वाभाविक है। इसी का समाधान करते हुए कहा है.-'स्वसत्ता थिर ठाण' अर्थात् परवम्नु ज्ञेयादि को जानने से परवस्तु को प्राप्त करने पर भी आत्मा की अपनी जानने की सत्ता स्वस्थान मे ही स्थिर समझनी चाहिए ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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