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________________ परमात्मभक्त का अभिन्नप्रीतिरूपी धर्म ३०१ आराधना करते हैं। वे यथार्थ धर्म से लाखो कोस दूर हैं । या तो वे लोग धर्म की कोरी बाते करते हैं, या धर्म का दिखावा करते है। आत्मधर्म की बात तो विरले ही जानते है । धर्म की आत्मा को यथार्थरूप से पहिचानना तथा • आत्मिक धर्म कौन-मा है, जो परमात्मा के निकट पहुँचा सके , इसे भी कोईकोई माई का लाल जानता है। खाना पीना, मौज उडाना, इस शरीर के कार्य को ही वे धर्म मानते हैं । आत्मा शरीर से अलग है, इत्यादि वाते वे जब तक नही समझते, तब तक सच्चा आत्मिक धर्म या परमात्मा के साथ अभिन्नतारूपी धर्म को वे नहीं समझते। . धर्म शब्द से यहाँ आत्मधर्म (स्वरूपाचरण-चारित्र) समझना चाहिए। उस चारित्र (धर्म) के वल से व्यक्ति नये कर्मों को नहीं बाधता और उसके पुराने कर्म समय पर परिपक्व हो कर भुगत लेने से खिर जाते हैं । और अन्तिम परिणाम यह आता है कि धर्मनायजिनेश्वर जिम स्वरूप मे स्थिर है, उसी स्वरूपधर्म को वह उपलब्ध कर लेता है। और यह धर्म ही वीतरागपरमात्मा के चरण ग्रहण करने वाला हो जाता है। जब तक आत्मा को यह अनुभव नही हो जाता कि मैं परमात्मा हूँ, तव तक कर्मबन्ध होता रहता है, परन्तु धजिनेश्वर (परमात्मा) के चरण पकडने पर उनकी शरण मे जाने पर यानी परमात्मा के साथ अभेदरूप हो जाने पर अयवा अपनी आत्मा परमात्मस्वरूप प्रतीत हो जाने पर कोई कर्म बाध ही नही सकता, क्योकि कर्मवन्धनो का रुकना ही धर्मप्राप्ति का प्रयोजन या फल है। धर्म के आते ही कर्मवन्ध रुकने लगता है, इस रहस्य को तथाकथित धर्मवादी नहीं जानते। __आगामी गाथा मे यथार्थ धर्म की प्राप्ति से क्या लाभ होता है ? इसे बताते हैं प्रवचन-अजन जो सद्गुरु करे, देखे परम निधान, जिनेश्वर ! हृदयनयन निहाले जगधरणी, महिमा मेरुसमान, जिनेश्वर । धर्म० ॥३॥ १ 'वत्थुसहावो धम्मो'-वस्तु का स्वभाव धम है । आत्मद्रव्य का स्वभाव धर्म है। ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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