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परमात्मा के चरणो में आत्म-समर्पण
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अर्थ - जो शरीर, या शरीर से सम्बन्धित पदार्थों आदि को आत्म-बुद्धि से ग्रहण करता-मानता है, उसे प्रथम पाप रूप वहिरात्मा का प्रकार समझना । शरीर तथा सर्वपदार्थों या समस्त प्रवृत्तियो मे अपनेपन (ममत्व) की बुद्धि हटा कर सर्वत्र उन सबका साक्षी (ज्ञाता-द्रष्टा) बन कर रहता है, वह अन्तरात्मा कहलाता है।
जो ज्ञान के आनन्द से परिपूर्ण हो, जो परम पवित्र हो, कर्म, कषाय, रागद्वेष आदि सब उपाधियो से दूर हो, जो इन्द्रियो से अगम्य-अगोचर हो, जो अनन्तगणरूपी-मणियो का भण्डार या खान हो, इस प्रकार के स्वरूप वाले को परमात्मा समझो अथवा इस प्रकार के परमात्मपद को सिद्ध करोप्राप्त करो।
भाष्य
आत्मा का प्रथम प्रकार बहिरात्मा आत्मा के तीनो प्रकारो मे वहिरात्मा सबसे निकृष्ट प्रकार है । बहिरात्मा शरीर को ही आत्मा समझता है। वह यही तर्क करता है कि जैसे पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि (तेज) और आकाश, इन पांचभूतो के सयोग से एक चीज बन जाती है, अथवा गोवर (मिट्टी) के साय गोमूत्र (पानी) वायु, सूर्य की धूप व आकाश के मिलने मे गोबर मे बिच्छू पैदा हो जाते है, वैसे ही उक्त पांच भूतो के मयोग से ही यह शरीर बना है, यही आत्मा है । इस प्रकार वह आत्मा नाम की कोई चीज न मान कर शरीर को ही सब कुछ समझता है। शरीर की राख होने पर आत्मा की समाप्ति मानता है, उसका कथन इसी प्रकार का होता है कि जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पीओ, खूव मीज उडाओ, शरीर के भस्म होते ही सब कुछ ही खत्म हो जाता है, आत्मा नाम की कोई अलग चीज नहीं है, न कोई शरीर के राख होने के बाद लौट कर आता है।
ऐसा शरीर व्यक्ति को अपना मान कर यह समझता ह कि यह सदा शाश्वत
१. यावज्जीवेत् सुख जीवेत्, ऋण कृत्वा घृत पिवेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत ॥-चार्वाक