________________
११६
अध्यात्म-दर्शन
बारहता
रहेगा, कभी जीर्ण-शीर्ण नहीं होगा, यह शरीर मेरा है. में गया है। इसी को पुष्ट करने और शरीर के लिए दुनियाभर के उपा-पछार करने म वह लगा रहता ह । शरीर के लिए जरा-सा भोजन चाहिए वह बटिया में बटिया - म्वादिष्ट पदार्थों को जुटायेगा और गगनः करके रोगा, परीर को मुन्दर बनाने के लिए तेल-फूलेल, नीम, पाउडर आदि लगाएगा। शारीर बोकने के लिए साधारण वस्त्र चाहिए, पर शरीरमोही दुनियाभर के वढिया और वारीक वस्त्रो को जुटायेगा, संग्रह करके रखेगा। शरीर को रहने के लिए एक मकान चाहिए, कई मकान बनाएगा, आलीमान बगले राजा-संवार कर रनेगा । इन और ऐसे ही शरीर मे गुम्बन्धित तमाम पदायों पर.उसकी मैं
और मेरेपन की बुद्धि होगी, जिसके कारण राग-द्वेप. घृणा, मोह, नागक्ति, ईर्ष्या, वरविरोध, कलह आदि अनेक उत्पात खटे होंगे, जिनमे पाप कर्मों का बहुत वडा पुंज तैयार हो जायगा। मतलब यह है कि बहिरामा जीव अपनी समस्त प्रवृत्तियो में मैं और मेरेशन के कारण इतना नद्र.प हो जाता है कि उसे आत्मा के पृथक् अम्निन्ध ता भान ही नहीं रहता। शरीर ही मैं हूं, ये सब चीजें या ये राव सगे-सम्बन्धी, रिश्तेदार मेरे हैं, यह सब धन, मकान, दूकान, जमीन, जायदाद संच मेरी है, ये सब सत्कार्य मेरे ही किये हुए है, मेरी एज्जत बढे, मुझे ही यश मिले, मेरा नाम रोशन हो, मैं ही सर्वेसर्वा वन जाऊं, मेरी ही यह सब कमाई है। इस प्रकार गतदिन ममत्व के जाल में जो फैमा रहता है, आत्मा को बिलगुल भूल जाता है, जो शरीरादि पर द्रव्यो को आत्मबुद्धि से पकड़ कर अनात्मभूत तत्वा को स्व-स्वम्प मानता है, उन्ही में तदापार हो जाता है, जिसे नाशवान गरीर के लिए दुनियाभर के प्रपच, पापकर्म व 'उधेड़बुन करते हुए कोई सकोच या विचार ही नही होता, एक क्षणभर के लिए भी जो आत्मा के विषय मे सोत्र नहीं सकता। आत्मा के लिए कुछ भी नहीं करता। उसकी गमय चेतना मोह से आवृत होने के कारण उलटी और गडीमत हो जाती है। वह अहर्निश पुनपगा, वित्तपणा और लोकेपणा में रवा-पचा रहता है। इसी कारण वहिरात्मा को पापरूप, अनेक दोपो मे युक्त और अनैनः जाधि-ध्याधिउपाधियो मे युक्त कहा है।
आत्मा का दूसरा प्रकार . अन्तरात्मा