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उध्यान्म-दान
भाग्य
आत्मा को तीन अवस्थाओ के कारण तीन प्रकार अध्यात्ममाधक जब संसार की मगन्त आत्माओ , गाय मैत्री, अभिन्नता या सर्वभूतात्मगाव, या आत्मौपम्प बयवा समत्व स्थापित करने जाता है तो उसे गसार के ममन्त देल्धारियों या प्राणियों के कारी चोलो, ढांचो या विभिन्न देशो, वेषों, भापाशी, प्रान्ती, वर्ग-सम्प्रदायों, जातिको या दर्शनो के ऊपरी बावरणो को अपनी विवेकामयी प्रज्ञा से दूर हटा कर सब में विराजमान आत्मा को देखना चाहिए। उसे किसी भी प्राणी का मूल्याकन इन ऊपरी भेदो या आवरणो से न करके आत्मा पर ने करना चाहिए। वैसे तो निश्चय दृष्टि से ममार की सभी जात्माओ व परमात्मा की आत्मा ने कोई अन्तर नहीं है, परन्तु व्यवहारदृष्टि से नात्मा को ले कर विश्लेषण करते हैं, तो जान की न्यूनाधिकता के कारण बाह्य भेद दिखाई देता है। बत समार के समस्त प्राणियो की आत्माओ को देखते हैं तो उसकी मुख्यत तोन कोटियां नजर आती है-(१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा बौर (३) परमात्मा। ये तीनो आत्माएँ उत्तरोत्तर निमंनतर है। मात्म-गुणों के विकास की दृष्टि से उत्तरोतर आगे बटी हुई हैं। इनमे सर्वश्रेष्ठ अखण्ड, निर्मलतम, निर्विकारतम, एव अविनाशी एव सदा एकस्वरूप में रहने वाला प्रकार परमात्मा का है, इससे कम निर्मल व उनम प्रकार अन्तरान्मा गा है और सबमे निकृप्टनम अधिक विकारी प्रकार वहिरात्मा का है। अथवा 'अविच्छेद' शब्द का अर्थ यो भी कर सकते है कि मान्मद्रव्य की दृष्टि से सर्वत्र अविच्छिन्न एक आत्मद्रव्य ही है। ये तीन भेद तो आत्मा के सम्बन्ध मे विभिन्न बुद्धि को ले कर किये गये हैं।
आत्मा के ये तीन प्रकार किस कारण से किये है, तीनो के लक्षण क्याक्या है ?, यह वात अगली दो गाथागो में बताते है
आतमबुद्ध कायादिक ग्रह्यो, बहिरातम अघल्प, सुज्ञानी। कायादिकनो साखीचर रह्यो, अन्तर आतमरूप, सुज्ञानी ॥३॥ ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो, वजित सकल उपाय, सुज्ञानी।। . अतीन्द्रिय गुणगणमणि-आगरू, इम परमातम साध, सुज्ञानी ॥४॥
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