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________________ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण ११३ इसके मुख्यतया दो लाग तता दिये हैं-गतितर्पण ओर सुविचार-परिरार्पण । अहत्व ममन्व, चिन्ता, काक्षा, स्वार्थ, दोपारोपण, रचत्वमोह आदि मव बुद्धि की उछलकूद का परिणाम है । जब साधक आत्मसमर्पण कर देता है तो वुद्धि की यह गव उछलकूद बन्द हो जाती है, वह स्थिर, शान्त और सन्तुष्ट (तृप्त) हो जाती है कि जब मैने सब कुछ परमात्मा पर छोट दिया है, गव कुछ उन्हे ही मौंप दिया है तो मुझे किमी वात की चिन्ता, फलाकाक्षा, निमित्त को श्रेयअश्रेय देने, मनमाना करने, या अहता-ममता करने की क्या जरूरत है ? आत्मा में समर्पण मे पहले जो दुर्विचारो के बादल उमड-घुमड कर आ जाते थे, समर्पण के बाद वे सब फट जाते है और सद्विचारो का सचार आत्मा मे होता रहता है। अथवा आत्मा परभावो मे सचार करना छोड कर स्वभाव या स्वरूप मे रमणता के सुविचारों मे ही सनार करता है अथवा ऐसे मुविचारो मे आगे बढना है। __ इस प्रकार के आत्मसमर्पण की बात केवरा हम ही नही कह रहे है, इसका महत्व प्रत्येक धर्ममस्थापक, प्रत्येक सम्प्रदाय, प्रत्येक मत-पथ और दर्शन में आंका गया है। बडे-बडे धर्मधुरघरो, आध्यात्म-पथप्रेरको या अध्यात्म-मार्गदर्शको एव भक्तिमागियो ने आत्मसमर्पण को अध्यात्म-पथ पर प्रयाण करते समय आवश्यक माना है। इसलिए आत्मसमर्पण की बात बहुजनसम्मत, अनेक धर्मपुरुप-मान्य और मार्वजनिक है , वोबल हमारी कपोलकल्पित या नई नही है। परन्तु परमात्मा के चरणो में आत्मसमर्पण करने के लिए किस प्रकार की आत्मा होनी चाहिए, इस सन्दर्भ मे श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे आत्मा की तीन मुख्य अवस्थाएँ बताते हैत्रिविध सकल तनुधरगत आतमा, बहिरातम धुरि भेद, सुज्ञानी ! बीजो अन्तर आतम, तीसरो परमातम अविच्छेद, सुज्ञानी ॥ अर्थ समस्त शरीरधारियो के आत्मा तीन प्रकार के होते हैं-सबसे पहला प्रकार बहिरात्मा का है, दूसरा प्रकार अन्तरात्मा का है और तीसरा प्रकार परमात्मा का है, जो अखण्ड, अविनाशी और नित्य है। - ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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