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________________ ११२ अध्याना-सान बैठना है । रोगी दगा में परमाला-रामपित व्यजि को फलानोक्षा (नाक्षा) गही गताएगी। वह निप्ताक्ष, नि निनजीर निविनिनिय हो कर माधना के पथ, पर अवाघगति मे चलता जायगा । दुमरा लाभ सर्वग्वगमपित व्यक्ति को बदले की भावना से छुटकारे का मिलता है। यानी प्राय माधक किमी नी मेवा, परोपकार आदि सत्कार्य के बदले उस व्यक्ति से प्रनिष्ठा, नामवरी या कुछ भौतिक लाभ चाहता है, इस प्रकार की सौदेबाजी नरके वह साधना की मिट्टी में मिला देता है। परन्तु परमात्मसमर्पित नाधक निःगृह व निस्वार्थ भाव से मत्कार्य या सत्पुरुषार्थ करेगा। इसमें कामामोहनीय गाम में बहुन अशो में वह साधक बच जायगा। ईप्ट के वियोग और अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के सयोग से उसे आतंरौद्रध्यान नहीं होगा, क्योकि वह तो सब कुछ भगवच्चरणो मे मर्पिन कर चुका है। किसी प्रकार का भय, क्षोभ, अरिधरना बा लोग का ज्वार उसे नही दवा सकेगा। क्योंकि समर्पण करने पर उसे वैरागरण अगय का वरदान मिल जाता है। सबसे बड़ा भौनिक लाम सामारिका लोगो को यह है कि वे सच्चे माने में परमात्मा के चरणो मे सर्वकार्यों या इच्छाओं को समर्पित कर देते है तो फिर अकार्य या बुरे कार्य में वे प्रवृन नही हो सकते, दुर्व्यसनो और पापकार्यों से तो उन्हें फिर बनना ही होगा। जैनसाधकों ने लिए तो 'अप्पाण वोसिरामि' करने के बाद समम्न सावध (दोपयुत्त.) कार्यों को छोडना होता है तथा अपने मन-वचन-काया को पापकायों गे हटाना अनिवार्य होता है। समर्पणकर्ता के जीवन में अहकर्तृत्व और ममकर्तृत्व-जो कि समस्त राग-द्वेपो की जड़ें है सभी सासारित झगडो के मूल है-मे भी प्राय पिण्ड छूट जाता है। इन और ऐसे ही दोयो के हट जाने या नाट हो जाने पर आत्मसमर्पणकर्ता को आध्यात्मिक लाभ भी अनेको होते है-'१) आत्मा मोहनीय आदि पातीकमाँ को आते हुए रोक (सवर कर) लेती है , (२) आर्त-रोद्र-ध्यान मे वच कर वर्म-शुक्लध्यान में लग जाती है. (३) परभावो में रमण करने की वृत्ति छोड कर स्त्रभाव में रमण कारने में प्रवृत्त होती है, (८) शरीर और शरीर से सम्बन्धित सभी दुर्भात्रो या भौतिक पदार्थों (परभावोविभावो) के चिन्तन से हट कर आत्म-चिन्तन में अधिकाधिक जुटनी है, (५) आत्मसमाधि प्राप्त कर लेती है। इसीलिए श्रीआनन्दधनजी ने इस नाया मे
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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