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अध्यात्म-दर्शन वाल नजदीक आता है, तब देव गट-वियोग के दुख गे पोहित हो कर विलाप और शोक करते हैं। गनुप्यगति गे वैरविरोध, निवा, गय, अटवियोग और अनिष्ट योग में दुख ही दुख होता है। नियंचगति मे विवग और पराधीन हो कर पशु-पक्षी आदि को चुपचाप खूब दुख सहने परते है और नरगति ने दुख का तो कोई ठिकाना ही नहीं है । वहां पारम्परिक दुख के सिवाय क्षेत्रात दुख का भी कोई पार नहीं है। इस प्रकार जारी गतियों और विविध योनियो मे मनान, मोह, और मिथ्यात्व के कारण दुख ही दुख सहे । भूतकाल में भी दुख महे, वर्तमान में भी अज्ञान और मिथ्यात्व के कारण मनुष्य याध्यात्मिक दुख-विषयकपायजन्य जन्ममरणात्मक, माननिका दुरा-प्टपदार्थ की अप्राप्ति और उसके वियोग तथा प्रतिकूल अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति या सयोग से होने वाले मन कल्पित दुख , एव शारीरिक दुस-भूख, प्याम ज्वर, कटमाल आदि रोग, गन्न जादि के घाव से होने वाली पीडा, यों विविध दुःख नहता है । दुर्भाग्य, यमनमीवी, पूटे भाग्य या पुण्यहीनता अगुभनामकर्म का फल है । जिसके भाग्य बुरे होते हैं, उसे भविष्य मे अनेक दुःखो और सक्टो का सामना करना पटता है । दुर्भाग्य के कारण व्यक्ति की बुद्धि भी कु ठित हो जाती है, उसे सच्ची बात मूलती नहीं।
परन्तु इन सब दुखो और दुर्भाग्यो का खात्मा परमात्मा के दर्शन (साक्षात्कार होते ही हो गया। इसका रहस्य क्या है? माइए सर्वप्रथम निश्चयदृष्टि से इस पर सोचे-सम्यन्न सम्यानाना दिव्यचक्षु से परमात्मा के अखण्ड आत्मगुणो पर विचार करके जब आत्मा परमात्ममय या परमात्मा मे लीन हो जाता है, जिसे हम पहले परमात्ममाक्षात्कार कह माए है, उसकी उपलब्धि हो जाती है, तब आत्मा को अपनी असलियत का पता लग जाता है । वह सोचने लगता है, कि ये सब सासारिक पदार्थ, जिन्हे मैं अपने मान कर उनमे लुब्ध हो कर पूर्वोक्त सभी प्रकार के दुख पाता था। इनके कारण चारो गतियो में बारबार भटकता था । इनमे कोई सुख नही है, ये तो दुःखस्प है । सच्चा गुख तो आत्मा मे है, परमात्मा के गुद्ध रूप को निहारने में है । अन अब जब कि मुझे दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गई है, मुझे परमात्मत्व (शुद्ध आत्मतत्व) मे डूबने पर पूर्वोक्त दुखो का भान भी नहीं होता। मुझे अपनी आत्मा के शुद्धस्वरूप को देख कर सब प्रकार की तृप्ति,