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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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मात्मतत्व का साक्षात्कार करने पर मात्गा रवयमेव परमात्मा बन जाती है। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी परमात्मनत्व यानी शुद्ध आत्मा के दर्शन करके स्वय को कृतकार्य मानते हैं।
चूंकि परमात्मा वर्तमान में अपने आप मे निरजन निराकार हैं, और अव वे तीर्थकर-अवस्था गे भी प्रत्यक्ष विद्यमान नहीं है, इसलिए उनके दर्शन या साक्षात्कार इन चर्गचक्षुओ गे तो होने असम्भव हैं, तब फिर श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे कैसे कह दिया-विमल जिन दीठा लोयण आज ? इसका गमाधान यह है कि श्रीआनन्दघनजी ने दूगरे तीर्थकर (श्री अजितनाथ) की स्तुति मे बताया था कि 'नयण ते दिव्य विचार' अर्थात्-जिन नेत्रो गे जिन भगवान् (परमात्मा) के दर्शन हो सकते हैं, वे तो दिव्यविचाररूपी नेत्र हैं। यहां भी लोचनो से भगवान को देखने से तात्पर्य है-दिव्यविचाररूपी नेत्रो से परमात्मा को देखना । परमात्मा को देखने या साक्षात्कार करने से वहां मतलब है-शुद्ध जात्मत्व (परमात्न) का विचार करना, परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन-मनन करके उनके तत्त्व का अपने आत्मदेव में विचार करना । यही परमात्मसाक्षात्कार या प्रदर्गन अथवा आत्मल की प्रतीति से तात्पर्य है । यह हुआ निश्चयदृष्टि से अर्थ ।
व्यवहारदृष्टि से प्रभु को नयनो से देखने का अर्थ है-प्रभु वीतराग की साकार छवि की अन्तर्मन मे कल्पना करवो उनके विमल (कर्मफलरहित) एव रागद्वेपविजेता रूप को नीहारना, अपने हृदय मे परमात्मा की शुद्धात्मगुणो से युक्त छवि को देखना, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानरूप दिव्यनयनो से परमात्मा को हृदय सिहामन पर विराजमान करके उनके प्रत्येक गुण पर गहराई से चिन्तन करना, उनको अपने नाथ या स्वामी मान कर उनके चरणो मे सर्वस्व अर्पणतापूर्वक भक्तिभावना से अपना सिर झुकाना , और उनके गुणो का प्रफुल्ल मन से गान करना। यही दिव्यनेत्रो से परमात्म-साक्षात्कार या आत्मसादालार (प्रभुदर्शन या शुद्रात्मदर्शन) है।
__ परमात्मसाक्षात्कार के बाद दु खदौर्भाग्यनाश कैसे ? अब तक आत्मा ने चारो गतियो और विविध योनियो मे दुख ही दुख पाया , क्योकि पूर्वोक्त दिव्यनेत्र नहीं मिले ये, जिनसे परमात्मा के दर्शन कर पाता । देवगतिमे दूसरे देवो का उत्कर्प देख कर ईर्ष्या होती है, च्यवन (अन्त)