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वीतराग परमात्मा का साक्षात्कार
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शान्ति, सतुप्टि और आनन्द की अनुभुति हो गई।मुझे अब किसी भी परपदार्थ या वाह्यपदार्थ से सुख प्राप्त करने की कोई अपेक्षा नही है । ये पदार्थ अपने आप मे मुझे न कोई सुख दे सकते है, न दुख । ये मणिक सुख या दुख तो तभी देते हैं, जब मैं इन्हे अपने मान कर आसक्तिवश इनमे से ईष्ट के वियोग या अप्राप्त होने पर तडफता हूँ, इसी प्रकार इनमे से अनिष्ट से घृणा और द्वेप करके परेशान होता हूं। अगर मैं इनसे कोई लगाव त रखू, इन्हे अपना न मानूं, सिर्फ शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा मे दिव्यनेत्रो से देखू , तो न तो मुझे किसी प्रकार का दुख होगा, न मेरे लिए कोई दुर्भाग्य का अभिशाप होगा। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी पूर्वोक्तदृष्टि से परमात्मदर्शन (दिव्यनेत्रो से) होते ही मस्ती मे झूम उठते हैं, उनका रोम-रोम पुकार उठता है—'दुःखदोहग दूरे टल्या रे, सुख-सम्पदशुभेंट ।" आज मेरे तमाम दुःख (मन करिपत या शारीरिक या आध्यात्मिक) दूर हो गये है, मेरा दुर्भाग्म भी मिट गया है ; क्योकि अव्यावाध अनन्तसुख, अनन्तज्ञानादिचतुष्टय से सम्पन्न परमात्मा से मेरी भेंट हो गई है, उनमे मैंने अपनी शुद्ध आत्मा की ज्ञानादि निधि को देखा तो अपनी खोई हुई सम्यग्दर्शन-ज्ञानादि मुखसम्पदा मुझे मिल गई। व्यवहारदृष्टि से इस पर विचार किया जाय तो यह अर्थ प्रतीत होगा कि वीतराग की छवि को अन्तर्मन मे निहारने और भक्तिभाव से उनके दर्शनवन्दन करने से इहलौकिक दुख, दुश्चिन्ताएँ, भय, विघ्न और नाना प्रकार के सकट दूर हो जाते हैं। प्रभुदर्शन-वन्दन-भक्तिजनित पुण्य के प्रभाव से शारीरिक, मानसिक तमाम दुख दूर हो जाना कोई अस्वाभाविक नही है। और साथ ही प्रभुदर्शन से दुर्भाग्य का मूल जो अशुभ नामकर्म है, वह सौभाग्य मे परिणत हो जाय, इसमे भी कोई अत्युक्ति नही है। पुण्यकर्म प्रवल हो जाने पर वाह्य सुख और सम्पत्ति प्राप्त हो जाना भी दुभर नही है। इसी कारण व्यवहारदृष्टि से भी श्रीआनन्दघनजी ने शायद अन्तर के उल्लासपूर्वक कहा हो-दुःखदोहग दूरे टल्या रे, सुख-सम्पदशं भेंट" लौकिक व्यवहार में भी देखा जाता है कि किसी शक्तिशाली या वैभवशाली पुरुष की दर्शन-विनयरूप भक्तिसे दीन-हीन व्यक्ति के दुख और दुर्भाग्य नष्ट हो जाते हैं, उसे सुख-सम्पदा की प्राप्ति हो जाती है, तब विमलनाथ वीतरागप्रभु की उक्त भक्ति से दुखदुर्भाग्य नष्ट हो कर सुख सम्पदाएं हासिल हो जाय , इसमे कौन-सी बड़ी