________________
२६०
मध्यात्म-दर्णन
बात है? प्रगु के दर्णन, विनय और भक्तिपूर्वक बसा आदि गे निश्चय और व्यवहार दोनो हटियो ने अनागागी पूर्णता पाल पाल हो जाते है।
परमात्मदर्शन के कारण भत्त मे आत्मिक दृटना इतना ही नही, निचयदृष्टि में पूर्वात प्रकार परमात्मसाक्षात्कार के कारण आत्मतत्वन व्यक्ति के जीवन में आत्मवल बन जाता है, और मान चिपगपपायादिजन्य दुश्चिन्ताओ, भयो और विकागे ने यह करना नहीं, हार नहीं खाता, उनके अधीन हो कर वह उनके आगे घुटने नहीं टेक्ला । दुनियादार लोग कहते हैं कि सम्पत्तिवान को अनेक प्रकार का निगोगनिन या दुश्चिन्ता नित भय रहता है, परन्तु जिने परमात्माप (गुद जागनन्य गा) जवन पृष्टमा हो, जिसके गिर पर परमात्मा (शुद्र मात्गनवष्टि) शी बाजाया हो, जिगने परमात्मा जैसे जवर्दम्न नाथ बनाये हो, ओ को राग नहीं पार रायना । जव अनन्तवनी रागद्वेपविजेता परमात्मा (गुद्व आतादेन) गो गने जगने स्वामी बनाये है तो वह प्रतिक्षण मेरे साथ है और साथ रहेग । मुगलो अननचतुष्टयस्प और गम्यग्दर्शनमानस्प आत्मिक गम्पत्ति गिती है, वह गीतिक सुरा गम्पत्ति की तरह नाणवान नहीं है, वह तो नखण्ड और अविनाशी । उनका वियोग कदापि होना सम्भव नहीं है। ऐगी दशा में यदि कोई मि न्याय, अज्ञान, राग, द्वेप, मोह, आदि आन्तरिक शाओ--(जो कि प्रतिक्षण भामगुणों के शिकार करो की टोह गे रहते हैं, जिनका मामा बामगुणो को लात गा नष्ट करने का है) का गी गय नहीं रहा। वे गुरा पर हावी हो जाय और मुझे अपना शिकार बना कर अपने चगुल में फंसा लें, या मुझे हैरान कारें, ऐसी मभा वना नहीं है । इसनिा श्रीआनन्दपनजी दृट आत्मबन के गाथ कह उठने है'धीग धणी माथे कियो रे, कोण गजे नर खेट ?" ___ व्यवहारदृष्टि से इसका तात्पर्थि यह होता है कि जब मैंने वीतराग प्रभु का सान्निध्य प्राप्त किया है, या आधार लिया है उनका ही अर्निण. स्मरण, ध्यान, जप, नवन, गुणगान करके उनके ही आशानुरूप सम्यग्दर्णन-ज्ञान--चारित्रमय वर्म का पालन किया है, तब कोई नी दुप्ट, शत्रु या धोखेबाज मुझे हैरान नही कर सकता, मेरा अहित नहीं कर सकता और न गृझे हरा सकता है ।
लोकव्यवहार मे जव किसी ग्त्री को पति का, बालक को मातापिता का, नौकर को मालिक का और सेवक को स्वामी का आधार मिल जाता है, तो फिर