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अध्यात्म-दर्शन
अजमाते भी हैं, फिर भी यह मन उनके हाथ में नहीं आता। बटे-बडे बागम- .. घारी आगम (में मन का वर्णन) पढ कर भी इस मन की किसी भी तरह थाह नही पाते । अथवा आगमधारी पुरष आगम ले कर मेरे पास में (हाथ-बगल में) बैठे हो, फिर भी मेरा मन अंबुश मे नही याता। सामान्य व्यत्तियों की तो बात ही क्या, वटे-बटे आगमधारी या दशपूर्वधारी तक भी मन पर अकुण नही लगा सकते, जबकि मन पर काबू करने के अनेक उपाय उनके हाथ में होते हैं, उनवे वण्टन्थ भी होते हैं, तथापि मन उनके अनुहा (वश) में नहीं आता। मैं इसे कह कह कर थक गया कि ऐसे मागमधारी पूज्य माधको की उपस्थिति में तो हे मन | तू मेरे काबू में आ जा, परन्तु यह मेरा बहना नहीं मानता। ग्यारह अग के पाठक अनेक माधुसाध्वी तक भी मन को अंकुश ने न रख सकने के कारण पतित हुए हैं। राजीमती साध्वी के रूपलावण्य को देख कर रचनेमि जैसे उच्च साधक का मन टांवाडोल हो गया था, वह सयम से 'भ्रष्ट होने को उद्यत हो गया था, किन्तु साध्वी राजीमती को युक्तिसंगत वाणी सुन कर वह पुन यथापूर्वस्थिति मे आया, परन्तु एक बार तो मन अकुश से बाहर हो ही गया था। पूर्व विद्या के धारक अनेक उच्च साधको के मन ने भी उन्हें पटाढा है । इतने-इतने भागमो के पाठ भी मन के निरकुश हो जाने पर उनके काम नहीं आए, अकुश करने में मददगार नही बनें। आचार्य रत्नाकर ने आलोचना करते हुए अपने मन की बात खोल कर रख दी- चचलने वाली नारियो के मुख को देख कर मानस मे राग का जो अश लग गया, वह शुद्धसिद्धान्त (आगम) रूपी समुद्र मे धो लेने पर या अवगाहन करने पर भी नही गया, हे तारक प्रभो | क्या कारण है इसमे ?" पण्डितराज जगन्नाय जैसे उद्भट विद्वान् भी मन के आगे हार खा कर कहते हैं- "उपनिपदो का अमृतपान जीभर कर लिया, भगवद्गीता भी बुद्धि मे जमा ली, तथापि वह नन्द्रवदना मेरे मानमत्पी सदन से नहीं निकलती। "२ मतलब यह है कि हाथी पर अकुश
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लोलेक्षणावत्र-निरीक्षणेन, यो मानसे रागलवो विलग्न । न शुद्धसिद्धान्त पयोधिमध्ये, धोतोऽप्यगात् तारक ! कारणं किम् ?
-रत्नाकर-पचविंशति , उपनिषद परिपीता, गीताऽपि च हन्त मतिपथं नीता। , तदपि सा विधुवदना, नहि मानस सदनाद् वहिर्याति ॥-भामिनीविलास
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