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परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा
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प्रस्तुत करने की, या बहस-मुवाहिसे की, अथवा किसी सम्प्रदाय, मत, पथ, पक्ष, 'या परम्परा का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं । उसे इन सवको गौण करके केवल आत्मा के विपय मे चिन्तन-मनन-निदिध्यासन करना चाहिए । फिर यह स्वाभाविक है कि जब उस महाभाग का ध्यान मुख्यतया आत्मतत्त्व की ओर ही होगा तो धन-सम्पत्ति, व्यापार-व्यवसाय, कुटुम्व- परिजन, मित्र, पुत्र, पत्नी, माता, भगिनी, घर, ग्राम, देश, शरीर, अहता-~ममता, मोह, स्वार्थ 'मिथ्यात्व, राग,द्वेप, किसी सम्प्रदाय-मत-पक्ष का पक्षपात, वादविवाद शास्त्रचर्चा, व्यवहारदृष्टि-ज्ञान-चाग्नि, क्रियाकाड, या दुनियादारी की. 'चेलाचेली की या पथ बढाने की सब बातें गौण हो जाएगी। वह आत्मा के ध्यान में ही तल्लीन हो कर गुण-पर्यायो के भेदो को गौण करके एक आत्मा का ही निश्चयदृष्टि से ध्यान करेगा। निश्चयनय (द्रव्याथिक) दृष्टि से आत्मा ही एक तत्त्व है, उसी तत्त्व में चित्त को तन्मय बना लेगा, इसके सिवाय सब वाणीविलास है, शब्दजालवत् हैं, शब्दादि का जाल है ।।
निष्कर्ष यह है कि यथार्थ आत्मतत्व को पहिचान के लिए तीन शर्ते हैंउसमें ही [१] राग, द्वेप, मोह और पक्ष का त्याग करना, [२] आत्मा का , ध्यान करना, उसमें ही एकाग्र हो जाना, [३] एक बार रागद्वेपादि का कर्म छोडने के बाद ससार मे कभी लौट कर न आना।
__ परमात्मा की कृपा : साधक के लिए महालाभ श्रीआनन्दघन जी ने परमात्मा से आत्मतत्व प्राप्त करने की जिज्ञासा का समाधान पा कर अपने को धन्य और कृतकृत्य समझा। और अपनी नम्रता पूर्वक प्रार्थना भगवच्चरणो में की है-श्रीमुनिसुव्रत | कृपा करो तो, आनन्दघनपद लहीए' । परमात्मा की कृपायाचना भक्ति की भाषा में सीधी प्रार्थना है, इसका तात्पर्यार्थ यह है कि आप मेरे आत्मविकास में परमावलम्बन वन कर प्रवल निमित्त बन जायँ तो मैं आपकी आत्मा के साथ (पूर्वगाथा में कहे अनुसार) अभिन्नभाव से रहूँ। अगर मुझे अपनी आत्मा में स्थिर होने की शक्ति' मिल जाय तो अवश्य ही आनन्दमय शुद्धस्वरूप- वाला शुद्धात्मपद परमात्मपद प्राप्त हो जाय। फिर मैं ऐसे सचिवदानन्दपद में प्रविष्ट हो जाऊँगा कि वहां से फिर लौट कर जन्म-मरण के चक्र में नही आना पडेगा। ।