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अध्यात्म-दर्शन
परमशुनन्नध्यानी हो जाते हैं, तब उनगे साधकदशा मिट कर सिद्धमुक्त] दगा प्रगट हो जाती है, और उन्हे जगा समम्न पदार्थ हानागलावत् हो जाते हैं। उस समय ये समस्त पदार्थो को तटम्यरूप-उदासीन माब ने देने हैं उनके लिए ग्राह्य-अयाह्य भाव नहीं रहता। वे न तो किमी अनिष्ट वरतु पर द्वैप करके उस का त्याग करने की प्रवृत्ति करते है और न ईप्ट वस्तु पर राग करके उगे स्वीकार करने की। क्योकि वे रागद्वेष में सर्वथा गहन हैं । इसी त्याग-ग्रहणरहिन परिणाग वाली दृष्टि को उदागीनता कहते है, जो प्रभु के परमपद की प्राप्ति की मुख्य हेतु है।
निश्चयदृष्टि मे विचार करें तो वीतराग-परमात्मा मे कारणावृति का गुण केवल परात्महितकर नहीं, अपितु वास्तव में स्वामहितकर होता है ।
और स्वात्महित वे तभी मानते है, जब कर्मों के बन्धन में आत्मा को बचाएँ । तथा कर्मवन्धन नमी नष्ट होता है, नव औदासीन्यभाव से युक्त माया वी उत्कृष्ट आत्मवीर्य की तीक्ष्णना हो। इस प्रकार ये नीनो परम्पर विरोधी गण वीतराग-परमात्मा मे एक गाथ पाये जाते हैं, जो ये चेतनामीन जाग्रत साधक को प्रेरणा देते हैं।
जगली गाया मे इसी विभगी जीन्य प्रकार में गगति बनाने :-~-- परदु खछेदन-इच्छा करुणा; तीक्षण पर दुख रीझ रे। उदासीनता उभय-विचक्षरण, एक ठामे किम सीझे रे ? शीतल० ॥३॥
अर्थ दूसरो के दुखो को मिटाने की इच्छा ही करणा है। पर [परभावो या आत्मा से भिन्न जडपुद्गलो] को दु.खी [आत्मा से हटते देख कर वे प्रसन्न होते हैं, यह उनकी तीक्ष्णता है। तथा करुणा और तीणता दोनो के लक्षणों से विलक्षण माध्यस्थ्यवृत्ति या तटस्थपरिणाम उदासीनता है । जाश्चर्य होता है कि ये तीनो गुण विलक्षण होने से एक जगह कैसे सिद्ध हो (रह) सकते हैं। परन्तु प्रभु मे ये तीनो गुण एक साथ रहते हैं, यही उनकी प्रभुता है।
भाष्य
दूसरी दृष्टि से विभगी को सगति पूर्वोक्त गाथा मे वीतराग-परमात्मा मे तीन परस्पर विरोधी गुणो की