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परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा
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प्राय देखा जाता है कि जिसका हृदय करुणा और कोमलता से परिपूर्ण होता है, उसके हृदय मे तीक्ष्णता-कठोरता प्रतीत नहीं होती, और तीक्ष्णता हो तो उदासीनता नही हो सकती, परन्तु वीतरागपरमात्मपद का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर उसमे ये तीनो परस्परविरोधी गुण एक साथ दिखाई देते हैं । वे कसे? परमात्मा के उन-उन गुणो का स्वरूप समझे विना झटपट निर्णय कर बैठे, यह उचित नहीं। अत इसी का समाधान करते हुए, श्रीआनन्दघनजी कहते हैं- सर्वजन्तुहितकरणी करुणा अर्थात् वीतराग तीर्थकर परमात्मा की वृत्ति जगत् के त्रस-स्थावर आदि समस्त प्राणियो का हित करने की होती है । प्रश्नव्याकरण-सूत्र मे तीर्थकर भगवान् द्वारा की जाने वाली प्रवचनप्रवृत्ति का उद्देश्य बताया है कि समस्त ससार के जीवो की रक्षारुप दया के लिए भगवान् ने प्रवचन कहे हैं। 'सवै जीव करु शासनरसी, ऐसी भावदया मन उल्लसी' इस प्रकार सर्वप्राणियो का हित करने वाली करुणा और कोमलता उनमे है। किन्तु पहले अपनी आत्मा की करुणा किये बिना कोई परमात्मा करुणानिधि नही बन सकता । अत. कर्मशत्रुओ या रागद्वेपादिरिपुओ से दबी हुई, रक बनी हुई । अपनी आत्मा पर करुणा करने के लिए वे इन शत्रुओ से जूझते है, इन पर करुणा नही करते, इसीलिए कहा है-'कर्मविदारण तीक्षण रे कर्मों के नष्ट करने मे वे अत्यन्त कठोर बन जाते है। अथवा अपने वृतकों का नाश करने हेतु अपनी वृत्तियो को तीक्ष्ण बना कर परमकरुणाशील प्रभु शुक्लध्यान उत्पन्न करते है । कृतकर्मों को काटने में शुक्लध्यानवृत्ति ही सफल होती है, जिसे तीक्ष्ण गुण कहा गया है। इसलिए तीक्ष्णता भी वीतरागप्रभु की गोभा है। इसी कारण उनका एक नाम अरि [ कर्मशत्रुओ ] के हन्त [नाणक] भी है । उन्हे कर्मों पर दया नही आती कि ये वेचारे कहाँ जायेंगे? इनका क्या होगा? अत जिस समय प्रभु में पूर्वोक्त प्रकार का करुणाभाव होता है, उसी समय उनमे कर्मों को काटने की तीक्ष्णता तीव्रता] भी होती है । परन्तु विचार करने पर यह विरोध नहीं रहता। क्योकि करुणा करने योग्य प्राणी अथवा आत्मा और कर्म विलकुल अलग-अलग हैं। जव परमात्मा वीतराग कर्मरहित हो कर
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'सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिय । -
। -प्रश्नव्याकरणसूत्र