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अध्यात्म-दर्शन
परमात्ममेवा अनिवार्य होने से उगी की प्रार्थना करने है । वह भी 'देजी कदाचित्' कह कर उताव नेपन में नही, किन्तु धीरता नाथ, जब कमी
अपने वारियमोहनीयकर्म का क्षयोपशमनना नोट तो जाग, मी परमात्मा की शुद्र मेवा चाहते हैं।
चूंकि वे परमात्मनेवा को अगम्य और अनुपम वन्तु मह चुके हैं। इस प्रार्थना में वे वर्तमान में अपनी आत्मा का उत्त प्रसार गी अगम्य या अनीन्द्रिय, अनुपम रोचा के योग्य न होना भी नम्रतापूर्वक ध्वनित करार देते हैं।
एक बात यह भी है कि वे परमात्मसेवा के ग आग्नेयपथ पर आने गे पहले जो महागुरुप उग कठोरपय पर प्रयाण करकेने पार कर चुके हैं, उनकी प्रेरणा, मार्गदर्शन या दिनानिदान चाहते हैं। क्योति परमात्मसेना जैसे आध्यात्मिक मार्ग में पारगत पुप के निर्देगन में चलने पर ऐरो गहन
कार्य मे कही रखनना, आत्मवचना, पतन या ब्रान्ति की संभावना नहीं रहती। । इमलिए ऐसे मेवानिष्णात वीतराग परमात्मा के चरणो मे विनय करके, उनकी
आना ले कर उनके सामने सेवक बन कर नम्र प्रार्थना करके मेवा के आग्नेय पथ पर चलने में महीसलामती या आत्ममुरक्षा अधिक है, खतरे की सभावना वाम है। कई लोग गुरु या परमगुरु (परमात्मा) का निथाय (शरण) न स्वीकार करके अध्यात्म के नाम मे उलटे रास्ते चढ जाते हैं, फिर उन्हें उसी पथ का पूर्वाग्रह हो जाता है, वे गलत, मार्ग को भी सही सिद्ध करने की वाशिण करते हैं। इसलिए ये और ऐसे मभावित खतरो मे बचने का उगाय गरणागत वन कर 'अप्पाण बोसिरामि' कह कर प्रार्थना करना है।
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'आनन्दधन-रसरप' के सम्बन्ध में · आनन्दघनरसरूप-शब्द परमात्मा का सम्बोधन भी सम्भव है। जिसका अर्थ होता है-आनन्द से ओतप्रोत सेवारस आपमे लवालब भरा है, आप आनन्दघनरसमय हैं। 'आनन्दघनरसस्प' सेवा का विशेपण भी बहुत कुछ सम्भव है ; क्योकि परमात्मा की सेवा इतनी ठोस आनन्दरमदायिनी होती है कि
उसका अनुमव वही कर सकता है । जिस भाग्यशाली को परमात्ममेवा यथार्थ " रूप मे उपलब्ध हो जाती है, उसको वह सेवा आनन्द से ओतप्रोत लगती है,
वाणी से अगम्य होने के कारण वह वाणी मे उसका वर्णन नही कर सकता।