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१९: श्रीमल्लिनाथ जिन-स्तुति-- दोषरहित परमात्मा की सेवकों के प्रति उपेक्षा
(तर्ज-काफी, सेवक किम अवगणीए,देशी) सेवक किम अवगणिये हो, मल्लिजिन ! ए अव शोमा सारी। अवर जेहने आदर अति दीये, तेहने मूल निवारी, हो॥
मल्लि ० ॥१॥
अर्थ
हे मल्लिनाय तीर्थकर प्रभो । आप (मापकी आत्मा को अनादिकाल से सेवा करने वाले) इन सेवकों (काम, क्रोध, रागद्वेषादि) को अवगणना (उपेक्षा) क्यों कर रहे है ? दूसरे जीव जिन काम-क्रोधादि) को बहुत ही आदर देते हैं, उन्हें आप तो जड़मूल से नष्ट कर रहे हैं । क्या इस समय यह सब आपके लिए शोभास्पद है । (व्यग मे)
माज्य
मधुर उपालम्म पूर्वस्तुति में वीतराग परमात्मा के परम धर्म को जिज्ञासा की वात घी, इसमे वीतराग परमात्मा की उन सेवको के प्रति उपेक्षा के लिए श्रीमानन्दघनजी भक्ति के आवेश मे आ कर मधुर उपालम्भ देते हैं कि आपतो वीतराग हो गए, जो लोग आपके स्वसमय या स्वधर्म के अन्तर्गत आ गए, उनके प्रति तो आपका कुछ लगाव प्रत्यक्ष नही तो, परोक्षरूप से है ही, वे लोग तो आपको अपना ही । मानते हैं, इसलिए उन्हे आपके द्वारा नहीं तो, आपके भक्त कहलाने वाले लोगो । द्वारा आदर-सत्कार मिलता है, लेकिन जो लोग आपके स्वधर्म या स्वसमय के अन्तर्गत नहीं आए, उनके प्रति आपका भी उपेक्षाभाव है और आपकी देखा देखी मापके भक्तो और अनुयायियो का भी उपेक्षाभाव है ! अत हे रागद्वेषरहित प्रभो | आपको न तो किसी के प्रति जरा-सा भी राग (लगाव) होना चाहिए और न किसी के प्रति उपेक्षा या घृणा (ष) का भाव ! आपको तो समभाव होना चाहिए । परन्तु मैं मानता हूं कि आपको वीतराग हो जाने के वाद न तो भक्तो के प्रति राग है और न अभक्तो के प्रति द्वेष, मगर वे लोग या हम लोग आपकी तटस्थता और उदासीनतारूप समता को देख कर यह !