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वीतराग परमात्मा के धर्म की पहिचान
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पर्याय हैं। पर्यावदृष्टि से अनेक रूप धारण करते हुए भी आत्मा तो सोने की तरह एक ही है । अत. जैसे सोने के विविध गुण और पर्याय सोने से अलग नहीं हैं, उनी ने समा जाते हैं, वैसे ही आत्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि गुण या देव-मनुष्यादि पर्याय आत्मा से अलग नहीं है, उसी मे समा जाते हैं। अत निष्कर्ष यह है कि आत्मा को द्रव्यदृष्टि से एक और नित्यरूप में देखने और निजस्वरूप सिद्ध करने का यह सव प्रयास है। इसी प्रकार पर्यायदृष्टि (व्यवहारनय) को छोड कर द्रव्यदृष्टि से देखने का भी मुख्य सकेत यहाँ किया गया है । जहाँ तक पर्यायदृष्टि नहीं छूटेगी, वहाँ तक ससार-परिभ्रमण है, व्यर्थ प्रयास है। अत निश्चयदृष्टि से आत्मा को अनन्त, नित्य, अव्याबाध, रत्नत्रयमय जान कर ही निर्विकल्प रस पीने पर आनन्दघनपद की प्राप्ति हो सकती है। निश्चय को मद्देनजर रखते हुए जानपूर्वक जो व्यवहार हो, तीर्थसेवा हो, उसमें पीछे नहीं रहना चाहिए, तभी वीतराग-परमात्मा का परम धर्म हस्तगत हो सकता है।