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________________ २४ : श्री महावीर-जिन स्तुतिपरमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना (तर्ज-धनाश्री ) वीरजिनेश्वर चरणे लागु वीरपणु ते मागुरे । मिथ्यामोह-तिमिर-भय भाग्यु , जीत नगारू वाग्युरे॥वीर० १॥ अर्थ इस अवसर्पिणी काल के चौवीसवें तीर्थ कर धमण भगवान महावीर स्वामी (परमात्मा) के चरण (सामायिक आदि चारित्र) का स्पर्श करके नमस्कार करता हूँ अथवा अपना अन्तःकरण चारित्र में लगाता हूँ और उनके द्वारा बताई हुई या उनके जैसी वीरता मांगता हूँ, जिस वीरत्व के प्रभाव से प्रभु का मिथ्यात्व-मोहनीय एव अज्ञानरूपी अन्धकार से उत्पन्न होने वाला एवं मात्मा को विह्वल बनाने वाला भय भाग गया था और केवलज्ञान प्राप्त करके कृतकृत्य होने से विजय का उका (नगारा) बज उठा था। भाष्य वीरता को प्रार्थना . किससे, क्यो और कैसी ? पूर्वस्तुति मे द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव से परत्व का त्याग करके परमात्मा से आत्मा के सर्वोच्च गुण-शुद्धज्ञान का पारमरत्न प्राप्त करने की उत्कण्ठा प्रकट की थी। परन्तु आत्मा के अनुजीवी स्वगुणो या स्वशक्तियो को प्राप्त करने के लिए जब तक आत्मा मे वीरता प्रकट न हो जाय अथवा आत्मा आत्मशक्ति या आत्मवीर्य से परिपूर्ण न हो जाय, तब तक स्वगुण या स्वशक्ति का प्रकटीकरण नही हो सकता। अतएव इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने वीतराग परमात्मा से वीरता की याचना की है। इस सन्दर्भ मे सर्वप्रथम सवाल यह होता है कि आम आदमी वीरता की मांग किसी बहादुर से या किसी साहसी पुरुष से करता है, अथवा जो शस्त्र-अस्त्र चलाने मे निपुण हो अथवा युद्ध करने मे फुर्तीला बांका वीर हो,
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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