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________________ परमात्मपथ का दर्शन प्रभुपथ के निर्णय मे चोयी और पाचवीं कठिनाई वीतरागामार्ग के निर्णय का पिपासु आशावान साधक अपनी अन्य पठिनाइयाँ पेश करता है तर्क-विचारे रे वाद-परम्परा रे, पार न पहुंचे कोय । अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे रे, ते विरला जन जोय ॥ . पथडो०॥४॥ अर्थ तर्क यानी अनुमानप्रमाण के द्वारा परमात्मपर का विचार करें तो सिवाय शुष्क वाद-विवाद की लम्बी परम्परा के और कुछ हाथ नहीं आता। ऐसे विवादो की लम्बी कतार से कोई भी जिज्ञासु साधक किसी निर्णय के सिरे तक नहीं पहुंचता । हमारी अभीष्ट और जिज्ञासा के अनुकूल वस्तु का यथार्यरूप से लाभदायक और परिपूर्ण अशो मे कथन करने वाले पुरुष तो इस संसार मे बहुत ही विरले दिखाई देते हैं । भाध्य तर्क द्वारा भी परमात्ममार्ग का निर्णय दुष्कर न्यायशास्त्र मे अनुमान-प्रमाण का बहुत बड़ा स्थान है। जो वात साव्य''वहारिक प्रत्यक्ष या आगमप्रमाण से सिद्ध नहीं होती, वे अनुमान-प्रमाण द्वारा सिद्ध की जाती हैं। सारा जैनतत्त्वज्ञान तर्क के अनुकूल है। जैनदर्शन का समग्र नयवाद, सप्तभगी, स्याद्वाद, आत्मवाद, या तत्त्ववाद आदि अनेक बातें तर्क की कसौटी पर यथार्थ रूप से कम कर निर्णीत की गई हैं। सन्मति-तर्क, म्यादवाद-मजरी, अनेकान्त-जयपताका, स्यादवादरत्नाकर, खण्डनखाद्य, रत्नाकरावतारिका, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्यरत्नो पर विचार करते है, तो ऐमा मालूम होता है, जैनदर्शन ने तर्क द्वारा जवर्दस्त किला फतह किया है । परन्तु तर्क मे वाद-विवाद का कही अन्त नहीं आता। एक प्रवल तर्क पूर्वोक्त निर्वल तर्क को काट देती है। चतुर नैयायिक तर्को का ऐसा जाल विटा देता है कि उसमे मे प्रतिवादी का निकलना तो दूर रहा, उन सबको पूर्वपक्ष के रूप मे समझना भी दुप्कर हो जाता है । इसीलिए कहा है१ वादाश्च प्रतिवादाश्च वदन्नो निश्चितानिव।। तत्त्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलवद्गती ।।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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