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परमात्म-दर्शन की पिपासा
आदि की कोई कीमत नही है । सम्यग्दर्शन के अभाव मे ज्ञान, चारित्र आदि सव भवभ्रमण मे वृद्धि करने वाले है, भव मे मुक्ति दिलाने वाले नही। सम्यग्दर्शन के अभाव मे चाहे जिनना तप कर ले, चाहे जितना शरीर को कष्ट दे ले, चाहे जितनी कठोर क्रिया कर ले, चाहे जितना आचार पालन कर ले, वे सब मुक्ति के कारण नहीं बनते, उनमे स्वर्गादि भले ही प्राप्त हो जाय, वे जन्ममरण के बन्धन को काटने वाले नही बनते । उत्तरोत्तर आत्मविकाम भी तभी होता है, जब सम्यग्दर्शन के साथ जान और चारित्र हो । गुणस्थानश्रेणी पर भी जीव तभी चढता है, जब उसमे सम्यग्दर्शन हो। कोरे वेप का, थोथी क्रियाओ का, विद्वत्ता, पाण्डित्य या शास्त्रो के गम्भीर अध्ययन का सम्यग्दर्शन के विना कोई मूल्य नही है। आत्मविकास मे ये वस्तुएँ तभी मदद दे सकती हैं , जव सम्यग्दर्शन इनके मूल मे हो। जिसका दर्शन (दृष्टि) सम्यक् हो जाता है, उसे शास्त्रो की, तत्त्वो की, हेय-ज्ञेय- उपादेय की, वस्तुस्वरूप को समझने की, अध्यात्मदृष्टि से किस वस्तु का, कहाँ, कितना
और कैसा उपयोग या सम्वन्ध है ? इन सब बातो की यथार्थ समझ आ जाती • है, आत्मभाव पर ठोस श्रद्धान हो जाता है, समस्त जीवो को आत्मा की दृष्टि
से देखने मे वह अभ्यस्त हो जाता है, समस्त शास्त्रो, धर्मों, दर्शनो, मतो, पथो 'धर्मग्रन्थो, धर्मधुरधरो, महापुरुषो आदि तथा ससार के समस्त पदार्थों को वह - आत्मा की कसौटी पर कस कर जांचने-परखने लग जाता है। प्रत्येक वस्तु मे निहित सत्यो व तथ्यो की छानवीन वह कर सकता है। यही सच्चा आत्मदर्शन और यही सच्चा परमात्मदर्शन है। वीतराग का सम्यग्दर्शन भी यही है। इसे पा कर व्यक्ति निहाल हो जाता है, जन्म-मरण के अनेकानेक चक्करो को काट देता है, उसका ससार-परिभ्रमण सीमित हो जाता है । और प्राणी के जीवन में सबसे बडा कष्ट जन्ममरण का है, क्योकि जन्म लेने के बाद मृत्युपर्यन्त प्राणी सम्यग्दर्शन के अभाव मे अज्ञान व मोह के वशीभूत हो कर अनेक अनर्यकर व तीव्र अशुभकर्मबन्धक प्रवृत्तियाँ कर वैठता है, अपने लिए फिर जन्ममरण के चक्र वढाता रहता है । यही दुखो की परम्परा का मूल कारण है। अतएव श्रीआनन्दघनजी कहते हैं कि अगर दर्शन-प्राप्ति का मेरा कार्य सिद्ध होता हो तो में जीवन-गरण की बाजी लगाने को तैयार हूँ। मुझे जिंदगी गे चाहे जितने पाप्ट राहने पडे, मेरी जिंदगी चाहे आफतो गगार