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अध्यात्म-दर्शन
गे तथारथित राम्यग-दर्शनी या गम्यग्दर्शन पान कराने वारेटार आत्मष्टि की ला गे रख कर या परमात्मा या जागा . तमा नी जोरशोर ग न्ट लगा कर उसकी ओट में प्राय गनरर्रष्ट वन जान है। वे शरीर में नम्बन्धित बानो-बटिया खानपान, गम्मान, प्रतिष्ठा, अनुवापिगेनी वृद्धि गरीरपोषण, अहकारपोगण, या गग-गवर्धक प्रवृत्तियों में ही अधिक गनग्न नजर आते हैं।
इसीलिए आनन्दघनजी स नथाकथित लेवल वाले गम्यग्दर्शन मे मतुष्ट नहीं हैं, वे इने अमनपान के बदले विषपान समझते है। बत वै इमे न अपना कर अगली गाथा में परमात्मा के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए कृतमवल्प हो कर पुकार उठने हैतरस न आवे हो मरण-जीवन तगो सीझे जो दरसणकाज । दरसरण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, 'आनन्दघन' महाराज ॥
__ अभिनन्दन० ॥६
अर्थ
अगर आपके (परमात्मा) दर्शन का कार्य सिद्ध हो जाय, तो मुम्ने जीवन या मृत्यु के कष्ट को कोई परवाह नहीं है। अथवा यदि आपके दर्शन की प्राप्ति का मेरा काम बन जाय तो फिर मुझे जीवन (जन्म)-मरण के चक्र मे भटकने का त्रास (कप्ट) नहीं रहेगा-सदा के लिए मिट जाएगा । सामान्यरूप से तो दर्शन दुर्लभ है, तथापि आनन्द के समूहरूप आप जिनराज (परमात्मदेव) की कृपा हो जाय तो यह सुलभ भी है।
भाप्य दर्शनकार्य की सिद्धि के लिए जीवनमरण को बाजी लगाने को तैयार आध्यात्मिक जीवन में मोक्षयात्री के लिए परमात्म-दर्शन या सम्यग्दर्गन सबने महत्वपूर्ण वस्तु है , यो कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि सम्यग्दर्शन एक का अक है, और ज्ञान, चारित्र, तप, बीय, उपयोग आदि विदिया है । जैसे एक के न होने पर विदियो का कोई मूल्य नहीं होना , वैमे ही सम्यग्दर्शन न हो तो जान, चारित्र, तप, नियम, मयम, वीर्य, उपयोग
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