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अध्यात्म-दर्शन
(भोतिका या आध्यात्मिक) नही होता, पूजा करने वाला अपो आत्मिक लाभ की दृष्टि से ही उनकी पूजा के माध्यम में अपने जात्मगुणो का स्मरण करने अपनी आत्मा को जगाता है। उस दृष्टि ने देना जाय तो परमात्मा की द्रव्यपूजा भी भावानुलक्षी या भावपूर्वक हो, तमी फनदायिनी होती है। मगर भावना न हो तो वह उक्त उद्देश्य को सिद्ध नहीं करती । दूसरे शब्दों में कह नो अकेली द्रव्यपूजा भावगूजा के बिना मुक्ति-फलदायक जयवा लागावा या आत्मगुणो में स्थिरताप्रदायक नहीं होती।
मगर परमात्मा की पूजा भी फिमी लौकिक स्वार्थ, भौतिक पदार्थ-प्राप्ति की लालसा, या यशकीति की इच्छा ने की जाती है तो उपर्युक्त उद्देश्यआत्मजागृति का प्रयोजन-यूरा नहीं होता । वह तभी पूरा हो नकता है, जब परमात्म-पूजा के साथ आत्मजागृति की दृष्टि से निम्नोक्त बातो का विवेक हो-(१) जिसकी पूजा की जा रही है, वह सच्चे माने में वीतराग-परमात्मा के रूप में पूजायोग्य या पूज्य है या नहीं ? (२) परमात्मा की पूजा किसी भौतिक लालसा, कामना, प्रसिद्धि, स्वार्थ या पदलिप्ता नथवा गिसी पोद्गलिक लाभ की दृष्टि से की जा रही है या मिर्फ जात्मविकाम अथवा आत्मगुगो की प्रेरणा या आत्मजागृति की दृष्टि से की जा रही है ? (३) परमात्मप्जा का रहस्य या उसका खास प्रयोजन क्या है ? (४) परमात्मा की भावपुर्वक पूजा या भावना से ही पूजा हो सकती है या दुर्बल आत्मा के लिए और भी कोई पूजा का प्रकार है ? अगर है तो वह कौन-सा है? उसकी पूजा के साथ भावशुद्धि कसे रह सकती है? परमात्मपूजा के सम्बन्ध में इन और ऐसी ही कुछ बातो पर विचार किये विना परमात्मा की केवल म्यूलपूजा (जो कि वर्तमानकाल म अन्यधर्मों की भक्तिमार्गीय शाखाओ मे अपनाई जाती है) को अपना लेना, अथवा अविवेकपूर्वक पडोनी सम्प्रदायो की बाह्यपूजा व वाह्यक्ति का अन्यानुकरण करना आत्मगुणविकास की दृष्टि के लाभदायक नहीं हो सकता।
उपर्युक्त वातो के सम्बन्ध मे हम यहां कुछ प्रकाश डालेंगे । यह तो पहले भी कई वार कहा जा चूका है कि पूजनीय व्यक्ति का नाम चाहे जो कुछ हो; अगर उसमे वीतरागता, समता, आत्मस्वरूप में सनत स्थिरता व अनन्तज्ञानादि गुण हों तो वह परमात्मा है, वन्दनीय, दर्शनीय, सेवनीय और पूजनीय है। परन्तु इसके विपरीत जिसमे वीतरागता आदि गुण न हो, सिर्फ वाह्य आडम्बर,