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परमात्मा की भावपजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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जनना की भीड, वाह्य रागरग तथा आकर्पक आभूपण, पोशाक आदि पहनने वाले, बाह्य भोगो व वैभवो की चकाचौंध मे दूवे हुए व्यक्ति को वन्दनीय, दर्णनीय, मेवनीय जोर पूजनीय (आध्यात्मिकदृष्टि से) नहीं माना जा सकता। परन्तु अगर सच्चे अर्थो मे यथोक्तगुणसम्पन्न परमात्मा की पूजा भी अगर भीतिक स्वार्थ आदि किसी दृष्टि से भी की जायगी तो वह भी सच्चे माने मे परमात्मपूजा नही होगी । गच्चे अर्थों मे परमात्मपूजा वही होगी, जहाँ उसे मात्मगुणो के विकान या स्वस्वरूप में स्थिरता की दृष्टि से आत्मजागृति पूर्वक अपनाया जायगा। वास्तव मे परमात्मा (वीतराग हैं, इसलिए उन) को हमारे द्वारा की गई पूजा से कोई मतलव या लाभ नहीं, लेकिन हमे अपनी आत्मा को आत्मगुणो के विकास की पूर्णता की ओर ले जाने के लिए परिपूर्णता के प्रतीक परमात्मा की पूजा करना है । मनुप्य जैमा बनना चाहता है, वैसा आदर्श उसे अपनाना जरूरी होता है । अगर साधक को अपने आत्म-विकास के अन्तिम शिखर तक पहुँचना हो तो उसे आत्मविकास की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए आदर्शपुरुप परमात्मा की पूजा - आदर्शरूप की पूजा करना नितात आवश्यक है । परमात्मा के तुल्य बनने के लिए उसे परमात्मा के आदर्श अपनाने तथा अपने उम निर्णय पर दृढ रहने के लिए परमात्मपूजा अनिवार्य है। परमात्मपूजा का रहस्य भी यही है कि आत्मा परमात्मा की पूजा द्वारा अपने आपको परमात्मा बनने के पथ पर टिकाए रखे, जहाँ आत्मगुणो या आत्मविकाम के विपरीत अथवा स्वरूप या स्वभाव के विपरीत पथ या बात हो, यानि परमात्मपूजा के विपरीत भौतिक या आत्मगुणातिरिक्त विकारो या विभावो की पूजा का का प्रश्न सामने आए, फिर वह सिर्फ धन, यश, वल, रूप, वैभव, कुल, जाति आदि की पूजा का ही प्रश्न क्यो न हो, सम्यग्दृष्टि साधक उसमे नही फसेगा, परमात्मपूजा के असली पथ से विचलित नहीं होगा। परमात्मपूजा से विपरीत स्वार्थपूजा या भौतिकपूजा के चक्कर मे वह नही आएगा। परमात्मपूजा परमात्मा को खुश करने के लिए या पापो से माफी के लिए अथवा पापो पर पर्दा डाल कर धर्मात्मा या भक्त कहलाने के लिए नहीं , अपितु अपनी आत्मा को सर्वांगपूर्ण सर्वगुणसम्पन्न बनाने के लिए है। इस प्रयोजन या उद्देश्य को न समझ कर जो लोग परमात्मा के प्रतीक (मूर्ति) के सामने नाच-गा कर केवल उनको रिझाने का प्रयत्न करते है, उनके प्रतीक के सामने चढावा चढा कर अथवा अमुक लौकिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनकी मनौती करते हैं, अथवा उनके
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