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________________ १७८ এসােয়া-গান बिम्ब के आगे बकने आदि पण-पक्षी गी बलि नहान, राव, मान मावि गोय या अभय द्रव्य नटाते है, वे भी परमात्मप्रजा के वास्तविक प्रयोगन मेमनमिन है। वास्तव मे परमात्मा की पूजा भावो गे ही तो रागाती है, उनकी स्तुति का गुणगान के पीछे भी परमात्ममय बनने या आत्म-गुणविशारा की पनकाष्ठा पर पहुँचने का लक्ष्य होता है। वह भी एक एक पकार की भावना ही ।। जयवा पूर्ण न्यागी परमात्मा के गमा हिंसादि-त्याग की पुणाजलि चटाना ही। उनकी पूजा है, जो भावमय है। परन्तु कुछ दुर्वल आत्माओ को ज्ञानयोग का यह मार्ग बहुत कठिन प्रतीत होता है । साधारणतया लोग कटोरमार्गको छोड कर आमान मार्ग पकडते हैं , नयोकि परमात्मा की कंवल भावपूजा करने में ज्ञान, बुद्धिवैभव, या मानसिक चिन्तन, ध्यान आदि की आवश्यकता होती है, जो प्रत्येक व्यक्ति के वश की बात नहीं है। आम जादमी सतत ग्वरूपलक्ष्य या आत्मगुणो के विकास या स्वभाव में स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए श्री आनन्दघनजी ने मम्भव है, उस युग मे जाम आदगियों के 'प्रव्यपुजा की ओर वटने हुए लोकप्रवाह को नया मोड देने अथवा उसमें भावा जानुलक्षिता का नया दौर लान अथवा भावपूजा के साथ उस समय के लोक मानस में प्रचलित द्रव्यपूजा का समन्वय करने की दृष्टि से कह दिया हो-'शुभकरणी एम कीजे रे' । तात्पर्य यह है कि या तो अशुभ प्रवृत्ति की ओर बढ़ते हुए लोकमानग को गाम रो कम ऐतिहासिक दृष्टि मे निर्विवाद है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद लगभग १७० वर्ष में आचार्य भगवाह स्वामी हए। उन्होंने चन्द्रगुप्त राजा को उसके १६ स्वप्नी का अर्थबोध देते हए पूर्व स्वप्न मे चैत्यस्थापना तथा उससे होने वाली हानि का सकेत किया है। देखिये व्यवहारमूत्र की चूलिका"पंचमए दुवालसणि सजुत्तो कण्ह अहि दिट्ठो, तस्स फल दुवालसवासपरिमाणो दुक्कालो भविस्सई। तथ्य कालियसूयप्पमहाणि सुताणि वोच्छि ज्जिसति । चेइय ठवावेइ "लोमेण मालारोहण-देवल-उवहाण-उज्जमणजिविवपइट्रावणविहि पगासिस्सति, अविहे पथे पडिस्सई ।... ... इससे योगी श्रीआनन्दघनजी की, उस समय की भावना समझी जा सकती है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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