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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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शुभ प्रवृत्ति में टिके रहने के लिए परमात्मपूजा के स्थूलरूप का श्रीआनन्दघनजी ने समर्थन किया हो, अथवा उन्होंने भक्तिमार्गीय धर्म-राम्प्रदायो मे उस युग मे प्रचलित लक्ष्यहीन, भावहीन, बाह्यचमत्कारपरक, स्वार्थलक्ष्यी, आडम्वरयुक्त भक्तिवाद के रूप में प्रचलित तथाकथित भगवत्पूजा को देख कर या परमात्मपूजा के नाम पर विकृतियाँ, आडम्वर, अन्धविश्वास, चमत्कार या रूढिवाद आदि धुसे हुए देख कर उन्हे हटा कर जैनत्व की दृष्टि से अनेकान्तसिद्धान्त के जरिये भावपूजानुलक्ष्यी द्रव्यपूजा का समर्थन किया हो । यही कारण है कि उन्होंने इस स्तुति की प्रथम गाथा में इस बात को स्पष्ट कर दिया है-'अतिघणो उलट अग धरी ने, 'प्रह उठी पूजीजे रे' अर्थात् परमात्मपूजा करो, पर कब और कैसे ? इस वात का पूर्ण विवेक करके करो। 'उलट अग धरी ने' का मतलव है-मन-वचन-काया मे पूर्णउत्साह, उत्कट भावना, शरीर के अग-अग मे पूर्ण स्फूर्ति धारण करके । तथा 'प्रह उठी पूजीजे रे' कहने का यह मतलब है कि प्रात काल उठने ही या सवेरे उठ कर सर्वप्रथम और सब कामो को गौण करके परमात्मपूजा करो । यद्यपि परमात्मा की भावपूजा के लिए कोई विशेष समय नियत नही होता, जिस समय साधक की इच्छा हो, उस समय वह की जा सकती है। फिर भी प्रात काल का समय ब्राह्ममुहूर्त या अमृतवेला कहलाता है, उस ममय तन, मन, वातावरण सब शान्त रहता है, चित्त एकाग्र रहता है, मन अन्यमनस्क नहीं रहता, दिमाग भी ऊलजलूल विचारो मे रहित होता है, तनमन मे स्फूर्ति रहती है। एक लौकिक स्वर्णसूत्र भी है
___ "Early to bed, 'early to rise,
Makes man healthy,wealthy and wise" जो व्यक्ति जत्दी सो जाता है और प्रात जन्दी उठता है, वह मनुप्य स्वस्थ, धनाढ्य और बुद्धिमान बनता है। इसलिए आत्मिक दृष्टि से भी प्रात काल : परमात्मा की पर्युपासना के लिए बहुत उत्तम है । परमात्मा के नामजप, भजन, गुणगान, वन्दना; स्तुति, आदि के द्वारा परमात्मपूजा के लिए भी प्रभातकाल . . सर्वोत्तम रहता है। किन्तु इसके पूर्व एक वात प्रभातकाल में सर्वप्रथम करणीय ।' और वता दी है-'सुविधि जिनेसर पीय नमीने' सुविधि (जिन्होंने मोक्षमार्ग' का स्पष्ट विधान किया है ऐसे) वीतरागपरमात्मा के चरणो को नमन करके। इसके दो अर्थ प्रतीत होते हैं- एक तो यह है कि वीतराग-परमात्मा के चरण -