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दोपरहित परमात्मा की सेवको के प्रति उपेक्षा
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से व्यक्तियो को हम देखते हैं कि वे स्वय किसी को नहीं देते मो नही देते, दूसरो को भी देने में भी किसी न किसी इन्कार कर देते है । अथवा गुणवान् व्यक्ति मे दुर्गण का आरोपण करके उसे दान से वचित कर देते है। ऐसा व्यक्ति दानान्तरायकर्म के उदय से देने वाले पर रुष्टा हो कर उससे द्वेष करने लगता है । दानो मे सर्वश्रेष्ठ अभयदान है, उसमें बाहर से कोई वस्तु देतेलेते हुए दिखाई नहीं देती, लेकिन अभयदान वही दे सकता है, जो स्वय निर्भय हो, जिसमे आत्मशक्ति या अन्त प्रेरणा का बल हो, मन मजबूत हो । प्रभु ने देखा कि दानान्तरायकर्म ने मेरी आत्मा का बहुत बड़ा नुकसान किया है, इसलिए पहले दीक्षा लेने के एक वर्ष पहले से लगातार एक वप तक दान दिया,
और खूब उमग से, बहुत ही मुक्त मन से दान दिया, और मुनि वनते ही अभयदान की साधना शुरू कर दी, जो वीतरागपद प्राप्त होते ही परिपक्व हो गई। इसीलिए श्रीआनन्दघनजी ने कहा-'अभयदानपददाता' अर्थात् प्रभु ने जगत के समस्त जीवो को उपदेश और जान का दान करके उन्हे निर्भयता सिखाई। तया बाद में जो भव्य जीव थे, उन्हे अभयदानपद-निर्भय स्थान (मोक्ष) के दाता (अभयदयाण। बने । इसी प्रकार उपलक्षण से चक्ष, (ज्ञान) दानदाता तथा मार्गदर्शक बने ।
दानान्तराय के बाद आत्मा के गुणों का घात करने वाला, लाभान्तराय बत्रा, जो आत्मा का बहत वडा अहित करने वाला एव आत्मा को ज्ञान, दर्शन ,चारित्र मोर आत्मसुख का लाभ नही लेने देता था। यह कर्म ऐसा है कि ज्ञानादि का लाभ होता हा तो रोडे अटकता है । प्रभु ने लाभान्तराय कर्म को समूल नष्ट करके जगन् की आत्माओ के लाभ मे जो विघ्न थे, उन्हे मिटाए । और स्वय ससार मे सर्वोच्च लाम के पद (मोक्षप्राप्तिरूप परमपद) मे लीन (मस्त) हो गए।
प्रश्न होता है कि वीतरागप्रभु जगत् के लाभान्तराय के निवारक कैसे हो सकते हैं ? उनके द्वारा जगत् के लोगो की सासारिक लाभ की पूर्ति करने का मतलब है उनकी भौतिक इच्छाओ या कामनाओ की पूर्ति करना । जैनधर्म मे वीतराग परमात्मा को इस प्रकार का कर्ता हा या सासारिक लाभदाता नही माना गया है, फिर इस पद की सगति कैसे होगी? इसके उत्तर मे यही निवेदन है कि लाभ दो प्रकार के होते हैं -सासारिक लाभ और