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अध्यात्म-दर्शन
आत्मिक लाभ । वैसे तो प्रभु किसी भी प्राणी के सांमारिक लाभ तो क्या आत्मिक लाभ के भी सीधे कर्ता-धर्ता नहीं बनते, न निसी को हाय प ड कर वे सीधा लाभ देते हैं । परन्तु जहां तक सासारिक जीवो का सवाल है, वे किसी सासारिक व्यक्ति के कर्म में हस्तक्षेप नहीं करते, न कर सकते हैं। इसलिए सासारिक लाभ में आने वाले विघ्नो को दूर करने मे वे हाथ नहीं डालते । अव रहा आत्मिक लाभ । मासारिक प्राणियो को आत्मिक लाभ होने मे जोजो विघ्न होते हैं, उन्हे वे बता देते हैं, उन विघ्नों को नष्ट करने के लिए जप-तप या अन्य संयमादि साधना का वे निर्देश कर देते हैं, इसमे अर्जुनमाली, चण्डकौशिक, चन्दनवाला नादि को जैसे भगवान् महावीर के निमित्त से आत्मिक लाभ मिल गया, वैसे ही जगत् के भव्य जीवो के विघ्न दूर हो कर उन्हे आत्मिक लाभ मिले । इस प्रकार वीतरागप्रभु जग के जीवो का विघ्न- - निवारण स्वयं नही करते, करते तो वे जीव स्वय ही हैं, परन्तु भगवान् की प्रेरणा या निर्देश से करते हैं इसलिए वीतराग परमात्मा को निमित्तकर्ता कहा जा सकता है। अत. जगत् को आत्मलाभ मिलने मे जो विघ्न हैं, उन्हें मिटाने के लिए भगवान् प्रेरक हैं । हाँ, भगवान ने अपने लिए तो दोनो प्रकार के लाभों के अन्तरायो को दूर कर दिये हैं। स्वस्थ शरीर, इष्टविद्या, वस्तु आदि का लाभ भी आपको मिला है, और सर्वोच्च अनन्तसुखादि का आत्मिक लाभ भी। इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने आपके लिए कह दिया--परमलाम“रसमाता ।' इसी तरह भगवान् ने आत्मशक्ति को नाश करने वाले वीर्यान्तरायकर्म का क्षय पण्डितवीर्य (आत्मज्ञान व आत्मविकास के लिए आत्मबल को जागृत करके तदनुकूल मन-वचनकाया की प्रवृत्ति करके सर्वथा योगरहित होने के बल, तप, संयम आदि के जोर) से करके सम्पूर्ण पदवी जो मोक्ष मे मिलती है, उसका योग आपने साध लिया है, यानी आप उस स्थान पर पहुच गए हैं । उस शक्ति को आपने आत्मकार्य मे लगा दी है । अथवा आपने सम्पूर्ण आत्मवल और आत्मऋद्धिसिद्धि प्राप्त की, और शरीर से ही तीर्थकर बने । इससे अतिरिक्त एक वार भोग्य पदार्थ को भोगने मे रुकावट डालने वाले भोगान्तरायकर्म एव बार-बार भोग्य पदार्थ को पुन -पुन' भोगने मे रुकावट डालने वाले उपभोगान्तराय कर्म को आपने स्व-उपयोग स्वसुखास्वाद से दूर कर दिये । इससे आप अनन्त आत्मसुख के भोक्ता बने ।