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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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विषयो का रस पीता रहा अत आपके चरणो मे आत्मकथा निवेदन करके इन मब परद्रव्यो का नैवेद्य चढाता हूं।
इस प्रकार पूर्वोक्त अप्टद्रव्यो के माध शुभ और शुद्ध भावो का पुट दे कर परमात्मा के गुणो मे तन्मय हो कर भक्तिपूर्वक परमात्मपूजा करके भव्यजीव शुभगति प्राप्त करते हैं। परम्परा मे वे मुक्ति भी प्राप्त कर सकते
उपर्युक्त भावनाओ मे अनुप्राणित विधि को छोड कर जो प्रभुपूजा के बहाने सिर्फ गन्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्ण (गद्य-गीत के शब्दो, नर्तक-नर्तकी के रूपो, मिठाइयो, फलो या अन्य प्रमाद के रूप में प्राप्त खाद्य-पेयवस्तु के रसो, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की सुगन्धो एव कोमल वस्तुओ के सस्पर्शी , मे आसक्त और मुग्ध हो कर इन्द्रियो और मन को उच्च खल बना कर भोगो मे तन्मय होते हैं, विलासिता और रागरग मे मशगूल हो कर महफिल का मजा लूटने आते है , वे प्रभुपूजा मे कोमो दूर है। वे ऐमी प्रभुपूजा मे आत्मगुद्धि, चित्तप्रसन्नता और आत्मगुणो मे लीनता के बदले सासारिक विषयवासनाओ मे उलझ कर कभी-कभी आत्मपतन एव आत्मवचना कर लेते है । क्योकि १ शब्दादि-विपय कामगुण है, और मसार के मुल कारण है । जन्ममरण के चक को गति देने वाले है । इसी कारण उस समय के लोकप्रवाह को उलटी दिशा मे बहते देख कर आनन्दघनजी को कहना पडा-भावे भविक शुभगति वरी रे,
पूजा के और भी अनेक प्रकार उम युग मे प्रचलित थे, जिनका जिक्र श्रीआनन्दघनजी छठी और सातवी गाथाओ मे करते है
सत्तरभेद, एकवीस प्रकारे, अष्टोत्तरशत भेदे रे । भावपूजा बहुविध निरधारी, दोहगदुर्गतिछेदे रे ॥ सुविधि० ६ ॥
अर्थ परमात्मा की द्रव्यपूजा १७ प्रकार की है, २१ प्रकार की है और १०८ प्रकार की है । और भावपूजा अनेक प्रकार को निर्धारित (निदिष्ट) है। जो दुर्भाग्य और दुर्गति को मिटाती है।
१. “जे गुणे से मूलठाणेजे, मूलठाणे से गुणे"-~आचाराग य २ उ १