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सच्ची परमात्म-प्रीति
अलक्ष्य निरजन निराकार जरूर है, मगर वह) तो समस्त पापदोषो से रहित होता है, उसके ऐसी लीला संगत नहीं होती ; क्योकि जगत् की रचनारूपी लोला तो काम-क्रोधादि दोषरूप विलास है।
भाष्य
परमात्मप्रीति का अज्ञानजनित प्रकार परमात्मा के माथ प्रीति करने का एक अन्य प्रकार मामारिक लोगो द्वारा अपनाया जाता है, जिसका उल्लेख करते हुए आनन्दघनजी कहते हैं--कई लोगो की मान्यता है कि यो व्यर्थ ही तप करके देहदमन करने की या परमात्मपति को रिझाने के लिए जल मरने की आवश्यकता नही ; क्योकि परमात्मा तो अलध्य (अने य-अदृश्य) है , उस विदेह (देहरहित) के साथ हम सदेह का मिलन यो हो नहीं सकता , इमलिए उम अलक्ष परमात्मा की जो लीला (ससार की रचना) है, उसे लक्ष्य में ले लो, यानी उस ईश्वर-लीला को साक्षात् देख लो, और उसकी महिमा का इस रूप में गुणगान करते रहो। निष्कर्ष यह है कि ईश्वर ही हमारे विचारो, भावो और कार्यों का नियता है, उसकी इच्छा पर ही हमारे जीवन का सारा दारोमदार है, इस बात को मान कर उस पर ही मव कुछ छोड दो, हमे कुछ करने-धरने की जरुरत नही, न तप करना है, न कप्ट सहना है, न आत्मम्वरूप मे रमण के लिए ध्यान, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय आदि करना है, वही प्रमन्न हो कर मव कुछ कर देगा । उसकी इम लीला को देख कर उमी के गुणगान में मस्त रहने से वह प्रमन्न होगा, और हमारे मनोरथ पूर्ण कर देगा। परन्तु यह मान्यता प्रान्तियुक्त है, आत्मा की स्वतन्त्रता को नष्ट करने वाली और स्वपुरुषार्थविघातक हे, स्वरूपरमणता मे विघ्नकारक है, जान-दर्शन-चारित्र की आराधना से आत्मा को हटाने वाली है।
। निर्दोष परमात्मा के लिये सदोष लीला सगत नहीं उपर्युक्त मान्यता का खण्डन करते हुए वे कहते है-"जो परमात्मा राग, द्वेष, काम, क्रोध, अन्याय, पक्षपान आदि दोपी से बिलकुल मुक्त है, वीतराग है, अनन्त जान-दर्शन-चारित्र-मुखमय है, उसमे कामनाजनित इच्छा में सम्पृक्त दोपयुक्त नमार की रचनास्प लीला कैसे मम्भव हो सकती है ? संसार के विकारों एवं दोपो-कर्मों आदि मे सर्वथा मुक्त निरजन निगकार होने पर परमात्मा पुन कामना आदि दोपी गे युक्त हो नार उग राग-द्वेगयुक्त समार की